देवगढ़ किला जिला मुख्यालय छिंदवाड़ा से 42 किलोमीटर की दूरी पर विकास खंड मोहखेड़ के देवगढ़ ग्राम में 650 मीटर ऊपर एक पहाड़ी पर यह किला स्थित है जो देवगढ़ किले के नाम से जाना जाता है। यह किला घोर घोर घोरपन है।
यह किला 16वीं सदी में गोंड राजाओं द्वारा निर्मित माना जाता है। देवगढ़ का कोई प्रत्यक्ष लिखित इतिहास प्राप्त नहीं होता है। लेकिन बादशाहनामा व अन्य मुगल साहित्य में देवगढ़ की चर्चा की गई है।अकबर के समय देवगढ़ पर जाटवा शाह राज्य करता था।
अपने साम्राज्य के तहत जाने पर सम्राट अकबर ने इस क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए अपने सूबेदार को नियुक्त किया। अबुल फजल लिखता है कि सम्राट अकबर के शासन के 28वें वर्ष सूर्य 1584 ईसा पूर्व में देवगढ़ के राजा जाटवा शाह ने मोहम्मद जामिन को मार डाला। मोहम्मद जामिन, मोहम्मद यूसुफ खान का चचेरा भाई था। मोहम्मद जामिन ने बिना सम्राट अकबर की अनुमति के देवगढ़ पर सन् 1584 ई.में आक्रमण कर दिया।
जाटवा शाह ने मोहम्मद जामिन का स्वागत किया। उनके रूप कर्ता की एवं भविष्य में उनकी छत्रछाया का पालन करने का वचन दिया। लेकिन मोहम्मद जामिन ने उल्लंघन का उल्लंघन कर लालच और मोह के मद में अंग सेना सहित हरिया गढ़ पर आक्रमण कर दिया। और हरिया गढ़ को जमकर लूटा।
शायद सन 1584 ईस्वी का यह आक्रमण ही हरिया गढ़ के गिरने की कहानी है। जाटवा के संबंध में लिखा है कि "जहांगीर की यादें" में लिखा है कि "सम्राट जहांगीर अपने शासन के 11वें वर्ष सन् 1616 ईस्वी में मंगलवार से मालवा आया था। मालवा की सीमा पार करते समय जाटवा शाह ने बादशाह को दो हाथी पत्र का संदर्भ दिया।"
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इससे साफ होता है कि जाटवा शाह एक प्रभावशाली राजा थे। इसकी स्वयं की अवधारणा थी। जिसमें महाराजा जाटवा शाह के नाम से ब्रेनजा के सिक्के चमकते थे। राजा जाटवा शाह ने 50 साल तक यानी सन् 1620 ईस्वी तक कहा। हालांकि देवगढ़ के किले का निर्माण राजा जाटवा शाह ने किया था। आसपास के क्षेत्र में 800 कुआं, 900 बावली का निर्माण राजा जाटवा शाह ने किया था। लेकिन देवगढ़ के किले को शत्रुता की पेशकश की राजा बख्त रोशन ने।
और वापस देवगढ़ पर, उसने किले में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर मुगल शैली के अनुरूप किले की लिपियों से दस्तावेज बनाया। किसी समय इस क्षेत्र का सिरमौर रहा देवगढ़ का यह आलिशान किला, वर्तमान में जीर्ण-शिर्ण राज्य में है। एक नागरिक के अंदर एक शकखाना जो टिमंजिला है।
सन् 1972 ईस्वी में देवगढ़ घूमने के दौरान, राजा की बैठक के दरबार में, राजा के लिए झू से एक सिंहासन बनाया गया था। वास्तव में यह एक दार कुरसी बनी हुई थी, जो धाराएँ बनी थीं। जिस पर राजा बैठे थे। लेकिन वर्तमान में कहीं भी एक पत्थर की कुरसी का सिंहासन नहीं है।
गोंड वंश की गिरीदुर्ग देवगड
राजा जटबा 15वीं शताब्दी मे बन गया था। यह परकोट। समुद्री स्थल से 650 मीटर की ऊंचाई पर है। सुरक्षा की दृष्टि से परिपूर्ण था। परकोट पर पोहचने के लिए सबसे पहला बूटना पडता है।
हमारे सोच से अलग बाबड़िया।
आज धरती के गोद में समा गए। कुछ बावडीयो का और कुवो का मनरेगा के अंतर्गत जिर्णोद्धार किया गया है। किले के 6 - 7 किलोमीटर की दूरी पर सात भुलभुलैया के प्रवेश द्वार है। जो आक्रमणयो को समान कर सकता है।
परकोट के अंदर नक्कारखाना, क्लाउड पैलेस, पर्ल टांका, कचहरी, आर्सेनल, डायनामाइट व्यंजन और चंडी दाई की पेनठाना है।
1oo से जादा रूम क्लाउड्स पैलेस मे थे। इस किले पर एक तरह का मार्ग है जो कीपूर की और चमत्कार है। आज इस मार्ग को बंद कर दिया गया है। कुच्छ अजिबो घटना घट रही थी। कहते हैं कि अंग्रेजों के एक फौजी ने इस्मे दिया और लौटाया नहीं।
देवगढ़ ग्राम के निकट बांध वाले नाले के पास स्थित विचित्र पर कुछ देवी देवता के शैल चित्र उकेरे गए हैं। एक चट्टान में अष्टभुजा रणचंडी का शैल चित्र उकेरा गया है। आसपास के क्षेत्र के लोग कुलदेवी के रूप में यहां पूजा करते हैं। यहां चैत्र और क्वांर माह की नवरात्रि में मेला भरता है।
जिस देवगढ़ ने घटना में कभी इतिहास रचा था। आज उनका अपना इतिहास बनकर रह गया है। जहां के घने जंगल में कभी हाथियों की चिंघाड़ गूंज करती थी, आज वहां एक भी हाथी नहीं है।
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