रावेनवंशी गोंड -भारत के कटि प्रदेश यानि गोंडवाना में गोंड कोइतूरों की सत्ता थी. गढ़ मंडला और गढ़ा कटंगा में मरावी वंश के शासकों का प्रभुत्व था जिसके सबसे ज्यादा प्रतापी राजा संग्राम शाह थे जिनके मातहत 52 गढ़ और 57 परगने आते थे. इतिहासकार बताते हैं कि गोंडवाना के मरावी वंश के गोण्डों ने मध्य भारत में 1400 वर्षों से अधिक समय तक राज्य किया था (अग्रवाल, 1990). गढ़ मंडला के सभी राजा रावेन टोटेम धारी थे. आचार्य मोती रावण कंगाली ने अपनी पुस्तक “गोंडवाना का सांस्कृतिक इतिहास” में रावेन को नीलकंठ कहा है और बताया है कि गढ़ मंडला के राजाओं का गंडजीव चिन्ह (टोटेम) नीलकंठ या रावेन था. गोंडी में नीलकंठ पक्षी को पुलतासी या रावेन पिट्टे भी कहा जाता है ऐसा कहा जाता है कि दशहरा के समय नीलकंठ पक्षी का दर्शन करना शुभ होता है (श्रीवास्तव, 2017). चूंकि नीलकंठ पक्षी को गोंडी भाषा में रावेन पिट्टे कहते हैं और यह कोइतूरों के एक जाति गोंड के मरावी वंश का टोटेम है. मात्र इसके रावेन नाम से इस देश के लोग इस पक्षी के रावण समझ कर इसकी जान के दुश्मन बन जाते हैं. ऐसी मान्यता है कि नीलकंठ पक्षी भगवान् शिव का एक रूप है और धरती पर विचरण के लिए भगवान शिव इस नीलकंठ पक्षी का रूप लेकर घूमते है. दशहरे के दिन इस नीलकंठ पक्षी को देखने से इंसान को धन धान्य मिलता है और पाप मुक्त हो जाता है. यह भी माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति दशहरे के दिन नीलकंठ को देखता है और कोई इच्छा करता है, तो नीलकंठ पक्षी कैलाश पर्वत पर रहने वाले उसी तरह नीले-गले वाले भगवान शिव के पास उस व्यक्ति की इच्छा को पहुंचाता है और शिव उसकी मनोकामना पूरी करते हैं. इन अंधविश्वासों को पूरा करने के लिए, पक्षी पकड़ने वाले त्योहार से लगभग एक महीने पहले से ही इन नीलकंठ पक्षियों को फंसाना शुरू कर देते हैं. पक्षियों को बंदी बनाया जाता है, उनके पैरों को बांधा जाता है, उनके पंखों को छंटनी की जाती है और यहाँ तक कि उन्हें चिपकाया जाता है, ताकि वे उड़ न सकें. एक महीने तक पिजड़े में रहकर ये पक्षी बीमार और कमजोर हो जाते हैं और बाद में छोड़ने पर भी मर जाते हैं (मेनन, 2015). तौर पर महान या शक्तिशाली आत्माएँ भी कहते हैं. जब किसी कुंवारे लड़के या लड़की की असमय मृत्यु हो जाती है तब उसे मेड़ों के बाहर (गाँव की सीमा के बाहर) गाड़ते हैं. इनको अपने मुख्य सज़ोर पेन ठाना में नही मिलाया जाता बल्कि इन्हें अलग से सम्मान दिया जाता है. मृत लड़के की आत्मा को राव और मृत लड़की की आत्मा को कैना कहते हैं जो अदृश्य वेन (मानव) रूप में गाँव की सुरक्षा करते हैं! चूँकि इन युवकों और युवतियों की मृत्यु जीवन पूर्ण होने पहले ही हो गयी होती है इसलिए इन्हें पेन (देवता) का दर्जा न देकर इन्हें वेन रूप में ही पूजते है और राव वेन के नाम से जानते हैं. मृत व्यक्तियों के दफ़नाने वाले स्थान, उम्र और सामाजिक स्थिति के आधार पर दस तरह के राव (रावेन) होते हैं:- 1. घाट राव 2. पाट राव 3. कोड़ा राव 4. हंद राव 5. डंड राव 6. बैहर राव 7. कापडा राव 8. कप्पे राव 9. बूढ़ा राव 10. राजा राव इन्हें शक्ति स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त होती है. जंगलों और पहाड़ों से होते हुए जाने वाले रास्तों पर ऐसे घाट राव को बंजारी देव या बंजारी देवी स्थल के रूप में भी जाना जाता है. सारोमान (अश्विन माह) के दशमी के दिन राव वेनों का गोंगो (पूजा आराधना) होती है जबकि रावण का दहन होता है. पूरे नार (गाँव) में दसराव पेनों की गोंगो द्वारा गाँव की सुख, शान्ति, समृद्धि और सुरक्षा के लिए की जाती है| दशमी के दिन होने वाली राव पूजा को रावेन गोंगो कहते हैं. कई जन जातीय भाषाओं में गाँव के रास्तों को जिस पर बैलगाड़ी आती-जाती है या गाँव से बाहर जाने वाली पगडंडियों को भी रावेन कहते हैं जिसका मतलब रास्ता या मार्ग होता है. चाहे कुछ भी हो लेकिन यह बिलकुल साफ है कि रावेन और रावण दो विभिन्न पात्र है और दोनों दो भिन्न संस्कृतियों का हिस्सा हैं. और इसे देखते-समझते हुए ये बात साफ हो जाती है कि किसी-न-किसी षड्यंत्र के तहत रावेन और रावण को मिश्रित किया जा रहा है और अब उस कलुषित षड्यंत्र का परिणाम भी सामने आने लगा है. अब लोग रावेन को भूलकर रावण पर केन्द्रित हो गए हैं और जय रावण, जय लंकेश, जय लंकापति इत्यादि संबोधनों का प्रयोग करने लगे हैं. पहले मध्य प्रदेश के मंडला, बालाघाट, सिवनी छिंदवाड़ा बेतुल इत्यादि जिलों के ग्रामीण इलाकों में ‘रावेन ता सेवा सेवा’ (रावेन देवता की जय) का उद्घोष होता था आज उन्ही स्थानों में जय-लंकेश, जय-लंका-पति का नारा गुंजायमान हो रहा है. इससे साफ है कि जय भीम की तरह जय रावण को भी जय श्रीराम वाले नारे के विरोध में लाया जा रहा है इससे हिंदुओं की धार्मिक भावनाएँ आहत हो रही हैं और एक टकराव की स्थिति बन रही है. सर्व प्रथम एक यूरोपियन लेखक स्टीफन फुक्स ने वर्ष 1960 में अपनी पुस्तक “द गोंड एंड भूमिया आफ़ ईस्टर्न मंडला” में जनश्रुतियों के हवाले से लिखा कि कुछ गोंड वंश के लोग यह दावा करते हैं कि वे लंका के राक्षस राज रावन के वंशज हैं (फुक्स, 1960). हिन्दी लेखकों में सबसे पहले लिखित प्रमाण के रूप में राम भरोसे अग्रवाल ने गोंडो की स्वतंत्र पहचान पर प्रश्न चिन्ह खड़ा किया और उन्हे हिन्दू धर्म का अंग माना. अपनी पुस्तक “गढ़ा मंडला के गोंड राजा” में राम भरोसे अग्रवाल लिखते हैं कि “मैंने ‘रावनवंसी’ शब्द पर से अनुमान लगाया है कि गोंड जाति से ब्राह्मण है और शैव है” (अग्रवाल, 1990). इसी परंपरा को आगे बढ़ते हुए जाने माने इतिहासकार डॉ सुरेश मिश्रा ने 2007 में फुक्स का हवाले देते हुए एक कदम और आगे बढ़कर लिखा कि महाराजा संग्राम शाह के समय के सिक्कों में उन्हे पुलत्स्य वंशीय कहा गया है. डॉ सुरेश मिश्रा ये भी स्वीकार करते हैं कि संग्राम शाह को पुलत्स्य वंशी कहा जाना एक महत्वपूर्ण वक्तव्य है क्यूंकि पुलत्स्य ऋषि का पुत्र रावण था. साथ ही साथ डॉ मिश्रा ये भी जोड़ते हैं कि गोंड स्वयं को रावणवंशी भी कहते हैं. इस किताब में डॉ. कंगाली ने लिखा है कि गोंड वंश के संस्थापक यदुराय मड़ावी का गंड चिन्ह रावेन (नीलकंठ) पक्षी था इसलिए उनके वंश को रावेण वंशीय कहा जाता है. आज भी गढ़ मंडला के गंडजीव स्वयं को रावेण वंशीय कहते हैं. इसी दौरान वर्ष 2011 में वर्धा के एक मराठी गोंडी लेखक मरोती उईके ने इस भ्रम की स्थिति को और पुख्ता कर दिया. उन्होंने इस विषय पर मराठी में एक किताब लिखी जिसका शीर्षक है “होय… लंकापती रावन(ण) गोंड राजाच होता”
संदर्भ 1. अग्रवाल,राम भरोस. (1990). गढ़ा मंडला के गोंड राजा (चतुर्थ संस्करण, Vols. 1–1). मंडला: गोंडी पब्लिक ट्रस्ट, मंडला , मध्य प्रदेश 481661. . उईके,मरोती. (2012). होय …लंकापती रावन (ण) गोंड राजाच होता (प्रथम). वर्धा: संभाजी माधो कुमरे, ऊलगुलान प्रकाशन, वर्धा. 3. कंगाली,मोती रावण. (2011). पारी कुपार लिंगो गोंडी पुनेम दर्शन (चतुर्थ संस्करण). नागपुर: चन्द्रलेखा कंगाली जयतला रोड, नागपुर 440022. 4. डबस,हरवीर. (2017, October 1). “Neelkanth” Bird, That Proved Lucky For Lord Ram In Killing Ravana, Goes Missing On Dussehra. Retrieved October 7, 2019, from Indiatimes.com website: http://www.indiatimes.com/news/india/neelkanth-bird-that-proved-lucky-for-lord-ram-in-killing-ravana-goes-missing-on-dussehra-330811.html 5. फुक्स,स्टीफन. (1960). द गोंड एंड भूमिया आफ ईस्टर्न मंडला (द्वीतीय संस्कारण (पुनः मुद्रित), Vols. 1–1). न्यू दिल्ली: रिलाएंस पब्लिशिंग हाउस न्यू दिल्ली. 6. मिश्र,सुरेश. (2008). गढ़ा का गोंड राज्य (प्रथम संस्करण, Vol. 1). राजकमल प्रकाशन प्रा लि, नई दिल्ली. 7. मेनन,अपर्णा. (2015, October 21). A Dussehra Superstition Is Killing This Beautiful Bird. Here’s How We Can Save It. Retrieved October 7, 2019, from The Better India website: https://www.thebetterindia.com/36788/a-dussehra-superstition-is-killing-this-beautiful-bird-heres-how-we-can-save-it/
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