आदिवासी बहुल बस्तर संभाग के दंतेवाड़ा में राजकुमारी की याद में होली जलती है जिसने अपनी अस्मिता के लिए आग की लपटों में कूदकर जौहर कर लिया..

In Dantewada of tribal-dominated Bastar division, Holi is lit in the memory of a princess who committed suicide by jumping into the flames for her identity

भारत बहुत सी संसक्रतियों को अपने बाहों में समेटे हुए है, भारत के सभी राजयो के त्योहारो की परंपरा का अपना ही अलग महत्व है, पर सब की फीलिंग एक है, वो है, हर्षोल्लास उत्तर भारत में पौराणिक कथा के अनुसार लोग प्रहलाद नामक विष्‍णु भक्त की याद में होलिकोत्सव मनाते हैं जिसे आग जला नहीं सकी लेकिन वही मध्यभारत के गोंडवाना आदिवासी बहुल बस्तर संभाग के दंतेवाड़ा में ऐसी राजकुमारी की याद में होली जलाई जाति है जिसने अपनी रूबरू और अस्मिता के लिए आग की लपटों में कूदकर जौहर कर लिया था। यह होली बस्तर में जलने वाली पुरे भारत की सबसे  पहली होली मानी जाती है। यहां लोग रंग गुलाल से नहीं बल्कि मिट्टी से होली खेलते हैं, और गाय का गोबर तो रंगो से ज्यादा ख़ुशी देता है, ये गोबर गोंडवाना में शुलभता से हर कही फ्री में उपलब्द भी होता है, क्योंकि गोंडवाना हरी जंगली घास-पूस का भंढार है, और प्रत्येक घर के सामने गाय के गोबर का घोल बुजूर्गो के ज़रिये रखा जाता है, और ड़ीजे वाली होली न खेलकर हुडदंग वाली होली खेली जाति है, ज़िसका अलग ही मज़ा होता है.. यदि किसी का दमाद यदि ससुराल में है तो उसको गधे पर बिठाकर पुरे ग्राम में घुमाना ये भी जीजाजी के प्रति अटूट प्रेम को दर्शाता है, मगर ये गोंडवाना की परंपरा विलुप्त होने वाली है, या कहें विलुप्त हो चुकी है.

राजकुमारी के नाम पर सतीशिला..

गोंडवाना के बस्तर के दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी जी जानकारी देते है कि राजकुमारी का नाम तो हमको मालूम नहीं क्योंकि ये प्राचीन लोककथा है यहाँ की लेकिन दक्षिण बस्तर में लोक कथा प्रचलित है कि हजारो वर्ष पहले बस्तर की एक राजकुमारी को किसी आक्रमणकारी ने अपहरण करने का प्रयास किया। इस बात की जानकारी जब राजकुमारी को मिली तो राज़कुमारी ने मंदिर के सामने आग को जलवाया और बस्तर की सर्वोच देवी मां दंतेश्वरी का जयकारा लगाते हुए लपटों में समा गई।

इस घटना को अधिक समय तक संरक्षण किया जा सके इसके लिए  तत्कालीन राजाओं ने राजकुमारी की याद में एक प्रतिमा स्थापित करवाया है. जिसे लोग सतीशिला भी कहते हैं। छत्तीसगढ़ के  पुरातत्व विभाग के अनुसार दंतेवाड़ा के होलीभाठा में स्थापित प्रतिमा बारहवीं शताब्दी की है। इस प्रतिमा के साथ एक पुरूष की भी प्रतिमा है। लोक मान्यता है कि यह उस राजकुमार की मूर्ति है जिसके साथ राजकुमारी का विवाह होने वाला था।

गुप्त होती है पूजा..

छत्तीसगढ़(गोंडवाना) के दंतेवाड़ा में हर वर्ष फागुन(मार्च का महीना ) मंडई के नौंवे दिन रात को होलिका दहन के लिए सजाई गई लकड़ियों के मध्य माँ दंतेश्वरी मंदिर का पुजारी राजकुमारी के प्रतीक  के लिए केले का पौधा का मंदिर बनाकर गुप्त पूजा करता है। होली में आग प्रज्वलित करने के पहले गोंडी मान्यता के अनुसार सात परिक्रमा की जाती है। राजकुमारी की स्मिर्ती में होली जलाने के लिए प्राकृतिक रुप से ताड़, पलाश, साल, बेर, चंदन, बांस और कनियारी नामक सात प्रकार के पेड़ों की लकड़ियों एकत्रित की जाती है। इनमें ताड़ के पत्तों का विशेष महत्व है। होलिका दहन(जलाने के पहले ) से आठ दिन पहले ताड़ पत्तों को दंतेश्वरी तालाब में धोकर मंदिर परिसर के भैरव मंदिर में विधीविधान से रखा जाता है। इस प्राचीन पूजा रस्म को ताड़ पलंगा धोनी कहा जाता है।

मट्टी से खेलते हैं होली..

आमतौर पर उत्तर भारत में लोग रंग-गुलाल से होली खेलते हैं लेकिन मध्यभारत के गोंडवाना के दंतेवाड़ा क्षेत्र के ग्रामीण राजकुमारी की याद में जलाई गई होली की लकडी और गोबर की बनाई गयी गुलरिया की राख और दंतेश्वरी मंदिर की मिट्टी से रंगोत्सव मनाते हुए माटी के लिए और अपनी इज्जत के लिए जौहर करने वाली राजकुमारी को याद करते हैं। वहीं एक व्यक्ति को फूलों से सजा होलीभांठा पहुंचाया जाता है। इसे लाला कहते हैं। दूसरी तरफ राजकुमारी के अपहरण की योजना बनाने वाले आक्रमणकारी को याद कर परंपरानुसार गलीयो का दंगल किया जाता है..अर्थात एक दुसरे को गाली दी जाती है। ये उस समय की युध्द का प्रतीक है.

बस्तर की सैकड़ों साल पुरानी परंपरा, देवी-देवता भी खेलते हैं होली..

 Chhattisgarh का आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर कई रोचक परम्पराओं को बसाये हुए हैं. पूरे देश में होली के मौके पर लोग एकृ-दुसरे पर रंग-गुलाल खेलकर अपनी खुशी का इजहार करते हैं. वहीं छत्तीसगढ़ के नारायणपुर के खड़का गांव के आदिवासी समाज के लोग मंदिर में पूजा अर्चना कर पलाश के फूलो से रंग तैयार कर एक दूसरे को रंग लगाते हैं. होली त्यौहार के मौके पर आदिवासी समाज पलाश फूलों के रंग से अपने देवी देवताओं के साथ होली खेलता है.

शुरू से प्रकृति की पूजा
पलाश के फूलों से रंग तैयार
हल्दी और रंग खेले जाते हैं
शुरू से प्रकृति की पूजा

बस्तर के जानकारों का कहना है कि बस्तर में आदिवासी समाज शुरू से प्रकृति की पूजा करते आए हैं. नए सीजन में कोई भी फसल की पैदावार हो उसे आदिवासी समाज के लोग अपने देवी देवताओं को चढ़ाते हैं, फिर उसका उपयोग करते हैं. फागुन महीने में पलाश के फूल आ जाते हैं और आदिवासी समाज इस फूल के रंग को अपने देवी देवताओं को चढ़ाते हैं. उनके साथ होली खेलते है.

पलाश के फूलों से रंग तैयार..

खड़का गांव में होली त्यौहार के दिन ग्रामीण पूजा अर्चना कर पलाश के फूलों से रंग तैयार कर एक-दूसरे को रंग लगाते हैं. जानकार कहते हैं कि पलाश के फुल का रंग निकाल कर ग्रामीण पहले अपने देवताओं को चढ़ाते हैं इसे जोगानी कहते हैं. ये परंपरा लगभग 500 वर्षों से चली आ रही है. ठीक होली के समय ही गांव में देवी देवताओं को रंग चढ़ाने की ये परम्परा है.

हल्दी और रंग खेले जाते हैं..

आम तौर पर शादी विवाह के समय हल्दी और रंग खेले जाते हैं और ग्रामीण ईलाकों में होली के बाद शादी विवाह होती है. इतिहासकार कहते हैं कि मान्यता है कि जहां भी रंगों का उपयोग होता है पहले देवी देवताओं को अर्पण किया जाता है. देवी देवताओं के साथ जुड़े होने के कारण इसे देव होली भी कहते हैं.

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