Gondwana kingdom: 52 युद्ध जीतने वाले गोंड राजे संग्राम शाह की शासन व्यवस्था और कूटनिति..

अबुल फज़्ल दुर्गावती के शासन के 16 वर्ष और दलपतिशाह के शासन के सात वर्ष देता है, जबकि दुर्गावती की मृत्यु 1564 ई. में हुई। इस आधार पर संग्रामशाह की मृत्यु 1541 ई. हुई। लेकिन महामहोपाध्याय " मिराशी ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित संग्रामशाह के अन्तर्गत उत्थान / 59 संग्रामशाह के एक सिक्के की तिथि के आधार पर संग्रामशाह का शासन संवत् 1600 (1543 ई.) तक बताते हैं, जिस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। संग्रामशाह ने लगभग 33 वर्ष तक राज्य किया और इस अवधि में उन्होने निश्चयतः गढ़ा राज्य को दृढ़ता दी। संग्रामशाह का शासन काल लगभग तैंतीस वर्षों का रहा। इसीसे सिद्ध होता है कि उनका  शासनकाल सफल रहा। धीरे - धीरे उनकी शक्ति में वृद्धि होती गई। वह एक सफल कूटनीतिज्ञ थे, और अपनी योग्यता से उन्होने दुर्गम क्षेत्र में एक ऐसा विशाल राज्य निर्मित कर दिया जो आगामी दो शतियों से अधिक जीवित रहा। इब्राहीम लोदी का भाई जलालखाँ जब भागकर गोंडवाना में आया तो उसे गिरफ्तार करके इब्राहीम लोदी को सौंपकर उसने सुल्तान को अपना मित्र बनाया और इब्राहीम लोधी ने अपने समान शाह की उपाधी से नवाजा और जब इब्राहीम लोधी की मौत हुई तो इब्राहीम लोधी की सेना मैं उपस्थित अफगानी लडाको ने संग्राम शाह की सेना मैं अपनी सेवाए देना ऊचित समझा। गुजरात के सुल्त बहादुरशाह को रायसेन विजय में उसका विरोध ना करना भी संग्रामशाह की दूरदर्शिता थी और चौकी गढ किला रायसेन से उनके कमज़ोर होने की प्रितिक्षा करते रहे ।और जैसे ही बाहदुर शाह की सेना कमज़ोर हुई तो उसने बाहदुर शाह से युद्ध  के लिए बोला तो बाहदुर शाह कमज़ोर हो चुका था तो उसने संधी करना ही ऊचित समझा और रायसेन पर संग्राम शाह का अधिकार हो गया उत्तर - पूर्व में बघेल शासक वीरसिंह से उसके सम्बन्ध अंत तक अच्छे बने रहे क्योंकि बाद में दोनों में संघर्ष या वैमनस्य का उल्लेख नहीं मिलता। रामनगर के शिलालेख में उनकी प्रशस्ति में लिखा गया है कि अपने शत्रुओं के लिए वह वैसा ही था जैसे कपास के पुँज के लिए प्रलयंकारी अग्नि उसके प्रताप की चकाचौंध ने सूर्य को भी निस्तेज कर दिया था। " सिंगौरगढ़ किले के निकट उसने संग्रामपुर (जिला दमोह म. प्र.) नामक ग्राम बसाया जो आज भी विद्यमान है। संग्रामशाह सम्भवतः गढ़ा के निकट मदनमहल नामक एक भवन का निर्माण कराया। और काफी समय उसमें निवास किया। गढ़ा के निकट संग्राम सागर नामक एक सरोवर और उसके तट पर बाजनामठ भी इसी शासक ने निर्मित किए । संग्रामशाह के समय के और निर्माणों का उल्लेख इतिहासों में नहीं मिलता। संग्रामशाह अपने पूर्ववर्ती सभी शासकों से बढ़ - चढ़कर था, उसके उत्तराधिका में केवल उसकी पुत्रवधू दुर्गावती ने ही उसके समान शक्ति का उपभोग किया। संग्रामशाह मात्र एक विजेता नहीं था बल्कि उसने साहित्य को भी प्रश्रय दिया। वह || स्वयं भी एक साहित्यिक था और संस्कृत भाषा में उसकी अच्छी पैठ थी। उसके संस्कृत ज्ञान और संस्कृत प्रेम के प्रमाण के रूप में एक संस्कृत काव्य - ग्रंथ ' रसरत्नमाला ' प्रकाश में आया है, जिसे संग्रामशाह ने ही लिखा था। करमबेलकर " के अनुसार ऐसा मानने के चार कारण हैं प्रथम , इसके प्रारम्भिक श्लोक में वंशावली दी है। द्वितीय, सातवें श्लोक में संग्रामशाह को ही लेखक कहा गया है। तृतीय, इसके अंत में संग्रामशाह का नाम लेखक के रूप में स्पष्टतः लिखा है और चतुर्थ, यह कृति संग्रामशाह की साहित्यिक प्रतिभा को ही नहीं प्रकट करती , बल्कि यह भी इंगित करती है कि राजनैतिक मसलों 60 / गढ़ा का गोंड  राज्य में उसकी कितनी पैठ थी। उसने एक राजा के लिए आवश्यक जारी सूचना एकत्र की और उनका प्रयोग अपने राजकार्य में भी किया। दूसरे शब्दों में ' रसरत्नमाला ' राजाओं के लिए उपयोगी एवं संक्षिप्त विश्वकोष है ज़िसमे राज्य करने की कुटनिति को बताया गया है। ' रसरत्नमाला ' के अनुसार वह ब्राह्मणों का सम्मान करता था और शास्त्रों के रूप में उसका एक अतिरिक्त नेत्र भी था। संग्रामशाह ने हिन्दू दर्शन, विद्या और संस्कृति के तत्कालीन गढ़ मिथिला से भी विद्वान आमंत्रित किए। ऐसे एक विद्वान दामोदर ठाकुर थे जो प्रसिद्ध महेश ठाकुर के अग्रज थे । " ऐसा उल्लेख मिलता है कि दामोदर ठाकुर ने ' संग्रामसाहीयविवेकदीपिका ' और ' दिव्य निर्णय ' नामक दो निबन्ध लिखे। मिथिला के विद्वानों के आगमन की परम्परा आगे तक कायम रही। हम आगे देखेंगे कि संग्रामशाह के समय के उत्तराधिकारियों के समय ये मैथिल विद्वान उच्च पदाधिकारी हुए। संग्रामशाह के समय के सिर्फ दो अधिकारियों के नाम मिलते हैं। भोजसिंह कायस्थ उनका दीवान था " और उनके समय सर्वे पाठक के प्रपौत्र माधव नामक व्यक्ति को मंत्रिपद दिया गया। परम्परानुसार सर्वे पाठक गढ़ा राज्य के संस्थापक यादवराय का आमात्य था। refrence - पृष्ठ 325-26 2. दमोह दीपक , पृष्ठ 78 3. अकबरनामा , जिल्द दो , ( बेवरिज का अंग्रेजी अनुवाद ) पृष्ठ 325 4. दि सेन्ट्रल इण्डिया स्टेट गैजेटियर सिरीज़ , रीवा स्टेट गैजेटियर , जिल्द चार , पृष्ठ 13 , ए . एच . निजामी , प्रो . इ . हि . कां . , 1946 , पृष्ठ 242-45 और कनिंघम , आ . सा . 21 , पृष्ठ भी देखिए । < 15. ब्लाकमैन , आइन - ए - अकबरी ,

52 युद्ध जीतने वाले गोंड राजे संग्राम शाह की शासन व्यवस्था और कूटनिति..

अबुल फज़्ल दुर्गावती के शासन के 16 वर्ष और दलपतिशाह के शासन के सात वर्ष देता है, जबकि दुर्गावती की मृत्यु 1564 ई. में हुई। इस आधार पर संग्रामशाह की मृत्यु 1541 ई. हुई। लेकिन महामहोपाध्याय " मिराशी ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित संग्रामशाह के अन्तर्गत उत्थान / 59 संग्रामशाह के एक सिक्के की तिथि के आधार पर संग्रामशाह का शासन संवत् 1600 (1543 ई.) तक बताते हैं, जिस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। संग्रामशाह ने लगभग 33 वर्ष तक राज्य किया और इस अवधि में उन्होने निश्चयतः गढ़ा राज्य को दृढ़ता दी। संग्रामशाह का शासन काल लगभग तैंतीस वर्षों का रहा। इसीसे सिद्ध होता है कि उनका  शासनकाल सफल रहा। धीरे - धीरे उनकी शक्ति में वृद्धि होती गई। वह एक सफल कूटनीतिज्ञ थे, और अपनी योग्यता से उन्होने दुर्गम क्षेत्र में एक ऐसा विशाल राज्य निर्मित कर दिया जो आगामी दो शतियों से अधिक जीवित रहा। इब्राहीम लोदी का भाई जलालखाँ जब भागकर गोंडवाना में आया तो उसे गिरफ्तार करके इब्राहीम लोदी को सौंपकर उसने सुल्तान को अपना मित्र बनाया और इब्राहीम लोधी ने अपने समान शाह की उपाधी से नवाजा और जब इब्राहीम लोधी की मौत हुई तो इब्राहीम लोधी की सेना मैं उपस्थित अफगानी लडाको ने संग्राम शाह की सेना मैं अपनी सेवाए देना ऊचित समझा। गुजरात के सुल्त बहादुरशाह को रायसेन विजय में उसका विरोध ना करना भी संग्रामशाह की दूरदर्शिता थी और चौकी गढ किला रायसेन से उनके कमज़ोर होने की प्रितिक्षा करते रहे ।और जैसे ही बाहदुर शाह की सेना कमज़ोर हुई तो उसने बाहदुर शाह से युद्ध  के लिए बोला तो बाहदुर शाह कमज़ोर हो चुका था तो उसने संधी करना ही ऊचित समझा और रायसेन पर संग्राम शाह का अधिकार हो गया उत्तर - पूर्व में बघेल शासक वीरसिंह से उसके सम्बन्ध अंत तक अच्छे बने रहे क्योंकि बाद में दोनों में संघर्ष या वैमनस्य का उल्लेख नहीं मिलता। रामनगर के शिलालेख में उनकी प्रशस्ति में लिखा गया है कि अपने शत्रुओं के लिए वह वैसा ही था जैसे कपास के पुँज के लिए प्रलयंकारी अग्नि उसके प्रताप की चकाचौंध ने सूर्य को भी निस्तेज कर दिया था। " सिंगौरगढ़ किले के निकट उसने संग्रामपुर (जिला दमोह म. प्र.) नामक ग्राम बसाया जो आज भी विद्यमान है। संग्रामशाह सम्भवतः गढ़ा के निकट मदनमहल  नामक एक भवन का जीर्डोउद्धार कराय़ा। और काफी समय उसमें निवास किया। गढ़ा के निकट संग्राम सागर नामक एक सरोवर और उसके तट पर बाजनामठ भी इसी शासक ने निर्मित किए । संग्रामशाह के समय के और निर्माणों का उल्लेख इतिहासों में नहीं मिलता। संग्रामशाह अपने पूर्ववर्ती सभी शासकों से बढ़ - चढ़कर था, उसके उत्तराधिका में केवल उसकी पुत्रवधू दुर्गावती ने ही उसके समान शक्ति का उपभोग किया। संग्रामशाह मात्र एक विजेता नहीं था बल्कि उसने साहित्य को भी प्रश्रय दिया। वह ||
स्वयं भी एक साहित्यिक था और संस्कृत भाषा में उसकी अच्छी पैठ थी। उसके संस्कृत ज्ञान और संस्कृत प्रेम के प्रमाण के रूप में एक संस्कृत काव्य - ग्रंथ ' रसरत्नमाला ' प्रकाश में आया है, जिसे संग्रामशाह ने ही लिखा था। करमबेलकर " के अनुसार ऐसा मानने के चार कारण हैं प्रथम , इसके प्रारम्भिक श्लोक में वंशावली दी है। द्वितीय, सातवें श्लोक में संग्रामशाह को ही लेखक कहा गया है। तृतीय, इसके अंत में संग्रामशाह का नाम लेखक के रूप में स्पष्टतः लिखा है और चतुर्थ, यह कृति संग्रामशाह की साहित्यिक प्रतिभा को ही नहीं प्रकट करती , बल्कि यह भी इंगित करती है कि राजनैतिक मसलों 60 / गढ़ा का गोंड  राज्य में उसकी कितनी पैठ थी। उसने एक राजा के लिए आवश्यक जारी सूचना एकत्र की और उनका प्रयोग अपने राजकार्य में भी किया। दूसरे शब्दों में ' रसरत्नमाला ' राजाओं के लिए उपयोगी एवं संक्षिप्त विश्वकोष है ज़िसमे राज्य करने की कुटनिति को बताया गया है। ' रसरत्नमाला ' के अनुसार वह ब्राह्मणों का सम्मान करता था और शास्त्रों के रूप में उसका एक अतिरिक्त नेत्र भी था। संग्रामशाह ने हिन्दू दर्शन, विद्या और संस्कृति के तत्कालीन गढ़ मिथिला से भी विद्वान आमंत्रित किए। ऐसे एक विद्वान दामोदर ठाकुर थे जो प्रसिद्ध महेश ठाकुर के अग्रज थे । " ऐसा उल्लेख मिलता है कि दामोदर ठाकुर ने ' संग्रामसाहीयविवेकदीपिका ' और ' दिव्य निर्णय ' नामक दो निबन्ध लिखे। मिथिला के विद्वानों के आगमन की परम्परा आगे तक कायम रही। हम आगे देखेंगे कि संग्रामशाह के समय के उत्तराधिकारियों के समय ये मैथिल विद्वान उच्च पदाधिकारी हुए। संग्रामशाह के समय के सिर्फ दो अधिकारियों के नाम मिलते हैं। भोजसिंह कायस्थ उनका दीवान था " और उनके समय सर्वे पाठक के प्रपौत्र माधव नामक व्यक्ति को मंत्रिपद दिया गया। परम्परानुसार सर्वे पाठक गढ़ा राज्य के संस्थापक यादवराय का आमात्य था।

संग्राम शाह के सौ लड़ाकों का कमाल सुल्तान गयासुद्दीन और उनके खास सिपहसलारों के मरते ही बाकी सेना में भगदड़ मच गई..

बावन गढ़ों वाले गोंडवाना की प्रसिद्धि शायद आज इतनी नहीं होती, यदि गोंड शासक संग्रामशाह ने सूझबूझ भरे पराक्रम का परिचय न दिया होता। मालवा के सुल्तान से मिली पराजय के बाद गोंडवाना का सूरज लगभग अस्त हो चुका था लेकिन वह एक टर्निंग पाइंट ही था , जिसने गोंड लड़ाकों के शौर्य की एक नई इबारत लिख दी। बात 1510 की है, जब गोंड राजा संग्रामशाह ने अपने पिता अर्जुनदास के बाद गोंडवाना की सत्ता संभाली। उस समय गोंडवाना की सीमाएं दो - तीन गढ़ों तक सीमित रहीं। संग्रामशाह बड़े पराक्रमी और राज्य की सीमाओं को दूर - दूर तक फैलाने में विश्वास रखते थे। तभी , मालवा के सुल्तान गयासुद्दीन ने गोंडवाना पर आक्रमण कर दिया। युद्धभूमि का मैदान बनी माढ़ोताल ओर चंडालभाटा की भूमि। दो दिन चले युद्ध के बाद गोंड लड़ाके पराजित हो गए और संग्रामशाह हार मानकर पीछे हट गए। इसी बीच उन्हें एक औघड़ बाबा मिला .. जिसने राजा से कहा .. तू डर मत .. युद्ध कर। राजा ने कहा .. कहां मेरे पास सैकड़ा भर जवान और वहां 20 हजार सैनिकों वाली सुल्तानी सेना से युद्ध कैसे संभव है। औघड़ ने फिर भी युद्धभूमि में कूदने को कहा 

संग्रामशाह ने बात मानी और सरदार बघशेरसिंह से सौ लड़ाकों के साथ युद्धभूमि में कूदने को कहा। उधर, चंडाल भाटा में सुल्तानी सेना के लिए जश्न की रात थी । जीत के उन्माद में चूर अधिकांश सुल्तानी सेना खा - पीकर सो गई थी और कुछ जश्न मना रहे थे। रात के डेढ़ बजे होंगे, तभी गोंड सेना के महज सौ अश्वधारी लड़ाकों ने कत्लेआम मचाना शुरू कर दिया। दुश्मन को संभलने, तैयार होने का मौका ही नहीं मिला। चारों तरफ चीखें और हाहाकार मच गया। सुल्तान गयासुद्दीन और उनके खास सिपहसलारों के मरते ही बाकी सेना में भगदड़ मच गई। कई हजार सैनिक जिसे जहां जगह मिली, भाग खड़े हुए। सुबह का सूरज गोंडवाना साम्राज्य की नई रोशनी लेकर लाया। इस युद्ध के बाद संग्रामशाह ने कई युद्ध लड़े, राज्य की सीमाएं 52 गढ़ों तक फैलाई लेकिन वे कभी पराजित नहीं हुए। इतिहासकार आरके गुप्ता बताते हैं कि पूरी दुनिया में वीरता की ऐसी मिसाल शायद ही कहीं मिले, जहां चंद जांबाजों ने हजारों सैनिकों का पलक झपकते संहार कर दिया हो। गोंडवाना बना सेतु सोलहवीं शताब्दी की शुरूआत में भारत भूमि पर मालवा, जौनपुर, बंगाल, खानदेश, गुजरात, दिल्ली में अलग - अलग सल्तनतें काबिज हो चुकी थीं। सभी एक - दूसरे को हड़पने के प्रयास में थे। ऐसे में मध्य में स्थापित गोंडवाना के विशाल भूभाग ने उत्तर और दक्षिण में सेतु का काम किया। गोंड लड़ाकों के रहते दक्षिण के विजयनगर और बहमनी जैसे राज्य उत्तरी आक्रमण से बचे रहे।

refrence -
पृष्ठ 325-26 2. दमोह दीपक , पृष्ठ 78 3. अकबरनामा , जिल्द दो , ( बेवरिज का अंग्रेजी अनुवाद ) पृष्ठ 325 4. दि सेन्ट्रल इण्डिया स्टेट गैजेटियर सिरीज़ , रीवा स्टेट गैजेटियर , जिल्द चार , पृष्ठ 13 , ए . एच . निजामी , प्रो . इ . हि . कां . , 1946 , पृष्ठ 242-45 और कनिंघम , आ . सा . 21 , पृष्ठ भी देखिए । < 15. ब्लाकमैन , आइन - ए - अकबरी , दूसरा संस्करण , 1 पृष्ठ 685 और अकबरनामा , दो , पृष्ठ 315 6. सूरजप्रकाश , संक्षिप्त टीका ( गुरुमुखी में लिखित ) , प्रकाशक भाई लद्धासिंह , करतार सिंह , बाजार माई सेवा , अमृतसर , पृष्ठ 232 , 35-36
15. आर . आर . पृष्ठ 63 . 7. अकबरनामा , पृष्ठ 325-26 8. मे . आ . स . इ . 21 पृष्ठ 6 और 13 9. हीरालाल , दमोह दीपक , प्रथम संस्करण , पृष्ठ 78 , हीरालाल , लिस्ट , 1932 , पृष्ठ 61 10. गदेश , स्लीमेन , वार्ड इसे क्रमशः 1518 , 1480 और 1523 ई . में रखते हैं , जो स्पष्टतः गलत है । देखिए परिशिष्ट छह बिल्स राज . महा . , पृष्ठ 44 इसे 1500 और 1515 के मध्य रखते हैं । 11. हीरालाल , लिस्ट , पृष्ठ 50 , क्र . 72 , हीरालाल , मध्यप्रदेश का इतिहास , पृष्ठ 77 , आ . स.रि. , इक्कीस , पृष्ठ 168-69 12. फरिश्ता , जिल्द 2 , पृष्ठ 489 13. बिलासपुर डि . गैजेटियर 1910 , पृष्ठ 36-37 16. अकबरनामा , ( अनु . बेवरिज ) , जिल्द 2 , पृष्ठ 17. जर्नल ऑफ मध्यप्रदेश , इतिहास परिषद् , दो , 1960 , पृष्ठ 57-58 काइन्स ऑफ सम गोंड रूलर्स , न्यूमिस्मेटिक डाइजेस्ट , अंक 15 , 1991 , संग्रामशाह के अन्तर्गत उत्थान / 61 18. मध्यप्रदेश का इतिहास , पृष्ठ 90 19. संशोधन मुक्तावलि ( सर चौथा ) , पृष्ठ 178-82 , ऐतिहासिक संकीर्ण निबन्ध ( भारत इतिहास संशोधक मण्डल ) खण्ड 6 , पृष्ठ 51-55 भी । 20. करमबेलकर , ज . ए . से . बं . 19 , क्र . 2 , पृष्ठ 138 21. हाल , पृष्ठ 15 , श्लोक 27 , फैल , एशियाटिक रिसर्चेज , 15 , पृष्ठ 440 में चंद्रशाह को दलपतिशाह की संतान लिखा है , जो गलत है । शिलालेख के शब्द स्पष्ट हैं- " दलपतिनृपतेरथानुजन्मा .... " 22. अकबरनामा , दो , पृष्ठ 327 23. वही । 24. गढ़ेशनृपवर्णनसंग्रहश्लोकाः जी . व्ही . भावे ( संपा . ) एनल्स ऑफ दि भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट , 28 , 1947 , पृष्ठ 260 , इस काव्यसंग्रह का हिन्दी अनुवाद इस कृति के अन्त में परिशिष्ट 10 में दिया गया है स्लीमेन पृष्ठ 627 और गदेश , पृष्ठ 195 श्लोक 30 25. स्मिथ , ज . ए . सो . बं . , जिल्द 50 , पृष्ठ 42 , कनिंघम , आ . स . इ . जि . 21 , पृष्ठ 89 , जिल्द 2 पृष्ठ 458 , बीक्स , इलियट्स मेम्वायर्स , जि . 1 , पृष्ठ 76 , केशवचन्द्र मिश्र , चन्देल और उनका राजत्वकाल , पृष्ठ 198 26. गढ़ेशनृपवर्णनम् , श्लोक 27 , पृष्ठ 195 में स्लीमेन , पृष्ठ 6256 27. रामनगर शिलालेख , श्लोक 15 , हाल , पृष्ठ 14 , गढ़ेशनृपवर्णनम् , श्लोक 28 पृष्ठ 195 28. विल्स ,
https://books.google.co.in/books?id=gyq3uGRT-JEC&pg=PA51&lpg=PA51&dq=raja+sangram+shah+suresh+mishra&source=bl&ots=qb1wB4qNTj&sig=ACfU3U2uyK_2dZhKiUrQ4RCSuKIPA8v1iA&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwjP7bDYiov1AhWJNpQKHaYFBQUQ6AF6BAgOEAI#v=onepage&q=raja%20sangram%20shah%20suresh%20mishra&f=false

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