संग्राम शाह मध्य भारत में स्थित गढ़ा-कटंगा के गोंड वंश के 48वें राजा थे। वह एक शानदार राजा थे, जिन्हें संस्कृत कविता रासरत्नामाला की रचना की ज़िसमें एक राजा के राज करने की कूटनीति का विस्तार पूर्वक वर्णन है, वह वही कूटनिती है, ज़िसमें रावण आखिरी सांस चलने के वक्त राम भगवान ने उनको गुरु बनाय़ा और वह जानकारी प्राप्त की, और संग्राम शाह को 52 किले बनाने का श्रेय भी दिया जाता है। उनकी राजधानी सिंघोरगढ़ में स्थित थी।
गोंड खुद को रामायण के सोने के महल में रहने वाले राजा पुलस्त्य या रावण का वंशज मानते थे। अपने राज्य की स्थिति के कारण, उन्होंने तेलुगु लिपि को भी संरक्षण दिया। इस सिक्के पर, हम एक सिंह को दाहिनी ओर देखते हैं, जिसके चारों ओर नागरी कथा 'पुलस्त्य वंश श्री संग्राम साही' दक्षिणावर्त चल रही है। पीछे की ओर, राजा का नाम तेलुगु (श्री संग्राम साही) में और एक बार फिर नागरी (संग्राम साही) में और उसके बाद तारीख दिखाई देती है।
संग्राम_शाह - सोने का टंका, दिनांक 1480 (1528AD)
सोने के सिक्के में तेलगु भाषा का मतलब साफ है, गोंडवाना को विस्तार जबलपुर से तेलगु देश तक था यदि थोड़ा कुछ स्थानो पर होता तो कोई राजा सोने के सिक्के उस भाषा में कभी नही बनवाता और सोने के सिक्के वही चलवाता है जो महाराजाओ का महाराजा होता है.
मध्यकालीन स्वतंत्र गोंड सम्राजय 1480 AD .राजा संग्राम शाह के जारी किये गए सिक्को का संक्षिप्त उल्लेख..
संग्रामशाह के बाद गढ़ा राज्य का विस्तार नहीं हुआ, अतः यह संग्रामशाह के समय से ही गढ़ा राज्य के अधीन रहा होगा। अबुल फज़्ल द्वारा दी गई दूरियाँ त्रुटिपूर्ण हैं। संग्रामशाह के समय गढ़ा राज्य का विस्तार पूर्व - पश्चिम लगभग 475 किलोमीटर और उत्तर - दक्षिण लगभग 390 किलोमीटर था। सिक्के संग्रामशाह के समय के सोने , चाँदी और ताँबे के सिक्के मिले हैं। इससे अनुमान है कि उसने स्वायत्तता का उपभोग किया और उसके समय में पर्याप्त समृद्धि थी। उसके समय के सोने के तीन सिक्कों का उल्लेख मिलता है। सोने का एक गोल सिक्का प्राप्त हुआ है, जो संवत 1600 ( 1543 ईस्वी ) का बताया गया है। इसमें संग्रामशाह को पुलत्स्यवंशी कहा गया है। इसका कारण यह है कि गोंड स्वयं को रावणवंशी भी कहते हैं और रावण पुलत्स्य ऋषि का पोता था। संग्रामशाह का सोने का जो दूसरा सिक्का प्राप्त हुआ है वह वर्गाकार है और डॉ. हीरालाल के अनुसार यह संवत् 1570 ( 1513 ईस्वी ) का है। इसमें एक ओर नागरी लिपि में जो लिखा है उसका संशोधित रूप डॉ. हीरालाल ने इस प्रकार दिया है पुतरी स्वस्ति श्री संग्रामसाहि संवत् 1570 सिक्के के दूसरी ओर तेलुगु में लिखा है श्री संग्रामसाहि और नागरी लिपि में लिखा है - स्वस्ति श्री संग्रामसाह सोने के इस सिक्के में तेलुगु में जो लिखा है उसे हीरालाल इस प्रकार स्पष्ट करते हैं- “ स्थानीय परम्परा के अनुसार गढ़ा - मण्डला के गोंड शासक गोदावरी के तट से आए थे और इस बात की पुष्टि इससे होती है कि संग्रामशाह अपने मूल को भूला नहीं और उसने अपने मूल वतन की भाषा में अपना नाम उत्कीर्ण कराया , हालांकि जिस इलाके पर उसका शासन था वह पूरी तरह हिन्दुस्तानी था। " कलकत्ता के विद्याविनोद " में इस सिक्के की तिथि को संवत 1566 ( 1509 ईस्वी ) पढ़ा गया है। लेकिन डॉ.वा. वि. मिराशी दोनों मतों को नकारते हुए सिक्के की तिथि को संवत 1588 ( 1531 ईस्वी ) पढ़ते हैं। " सोने का तीसरा सिक्का इसी प्रकार का यानी वर्तुलाकार प्राप्त हुआ है जो है संवत 1600 ( 1543 ईस्वी ) का है। 45 हीरालाल लिखते हैं कि जबलपुर जिले में उन्हें सोने का जो सिक्का मिला था वैसी ही इबारत वाले तीन चाँदी के सिक्के उन्हें सतपुड़ा के पठार में स्थित तानिया ( तामिया ) में मिले थे । उनमें से दो मोटे तौर पर वृत्ताकार हैं जबकि तीसरा वर्ताकार है। उनमें एक तरफ सिंह अंकित है l। उनके पीछे का हिस्सा खाली है। " संग्रामशाह के चाँदी के एक और सिक्के का उल्लेख किया गया है लेकिन इस सिक्के में सिर्फ ' श्री स ' अंकित होने के कारण उसे संग्रामशाह का सिक्का नहीं माना जा सकता। " सोने और चाँदी के सिक्कों के अलावा संग्रामशाह के पीतल और ताँबे के सिक्के भी मिले हैं। श्री आर.आर.भार्गव ने संग्रामशाह के छह चौकोर सिक्के
सिक्का 2. सिक्का 3. Write review सिक्का 5 . सिक्का 6 . प्रकाशित किये हैं जो उनके अनुसार पीतल के प्रतीत होते हैं । इनका विवरण इस प्रकार है सिक्का 1 . Voi ) 6 surajthakur808@gmail.c Page 59 < ||| सिक्का 4. एक ओर दो पंक्तियों में तेलुगु में और उसके नीचे नागरी लिपि में ' श्री संग्रामसाह देव' तथा पीछे पंजा उठाए गर्जना करता हुआ सिंह और फारसी में ' संग्रामशाह तथा सूर्य तथा स्वस्तिक चिन्ह अंकित हैं। नागरी लिपि में संवत 1588 ( 1531 ईस्वी ) भी अंकित है। दोनों ओर सिक्का 4 के समान अंकन हैं। एक ओर नागरी लिपि में ' संग्राम ' और दूसरी ओर पंजा उठाए गर्जना करता हुआ सिंह और फारसी में ' संग्रामशाह ' अंकित है। एक ओर नागरी लिपि में ' स्त्री संग्रामसाहि ' और दूसरी ओर पंजा उठाए गर्जना करता हुआ सिंह और संवत 159 अंकित है। एक ओर ' श्री संग्रामसाहदेव ' और दूसरी ओर पंजा उठाए सिंह और सूर्य तथा स्वस्तिक चिन्ह अंकित हैं और तिथि ( 1 ) 591 ( 1534 ईस्वी ) दी गई है। एक ओर ' संग्रामसाह ' और तिथि ( 1 ) 573 ( 1516 ईस्वी ) तथा दूसरी ओर फारसी में कुछ अंकित है। श्री भार्गव ने संग्रामशाह के दो ताँबे के सिक्के भी प्रकाशित किये हैं । " ये दोनों सिक्के देवगढ़ टकसाल से जारी किये गए थे। एक सिक्का वृत्ताकार है और उसके एक ओर ' संग्रामसाहि देवगढ़ अंकित है और दूसरी ओर पूँछ ऊपर उठाए दहाड़ता हुआ बाघ और सम्वत ( 1 ) 576 ( 1519 ईस्वी ) अंकित है । दूसरा सिक्का वर्गाकार है और उसमें एक ओर ' श्री संग्रामसाहि देवगढ़ ' अंकित है और दूसरी ओर पूँछ ऊपर उठाए दहाड़ता हुआ बाघ है तथा संवत 1586 ( 1529 ईस्वी ) स्पष्ट रूप से अंकित है। संवत 1576 ( 1519 ईस्वी ) के सिक्के के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 1518 ईस्वी से लेकर 1529 ईस्वी तक देवगढ़ पर संग्रामशाह का निश्चित रूप से अधिकार था । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि परम्परा के अनुसार गढ़ा के शासकों का राजचिन्ह था हाथी को दबोचे हुए सींग वाला शेर जबलपुर के राजा गोकुलदास महल और जबलपुर कोतवाली में इस प्रकार की प्रतिमाएँ हैं और इन्हें गढ़ा राज्य का राजचिन्ह कहा जाता है ।
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