सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की महानायिका रानी फूलकुंअरि देव भारत की सम्पूर्ण नारी शक्तियों की प्ररेणादायिनी थी, वह वीरप्रसू थी उसने वीरपुत्र रघुनाथ को जन्म दिया था उनमे ममता, वात्सल्य, स्नेह, दुलार, करुणा, आशीष और सेवा के गुण विद्यमान हैं, वह विदुषी और धर्मनिष्ठ होने के साथ-साथ शूरवीर भी थी, उसने देश की स्वाधीनता के लिए हथियार उठाए थे.
रानी फूलकुंअरि देव ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक दिन बखरी में नर्मदा-सागर टेरेटरीज की वीरांगनाओं को बुलवाकर उनसे आग्रह किया था. “बहनों, समाज में आधी संख्या हमारी है, स्त्रियां हर क्षेत्र में ख्याति अर्जित करती आ रही है, भारतीय इतिहास बताता है, स्त्रियां किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं रही हैं युद्ध भूमि में पीछे नहीं रही है.”
रानी के निर्देशन में स्त्रियां किले अंतःपुर में इकट्ठी होती थीं. रानी उन्हें स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाती हुई कहती थी- अंग्रेजी सेना यदि वीर पतियों को पीछे धकेलने में कामयाब रहती है तो हमें स्वयं को रण में कूदना पड़ सकता है. इसलिए तुम सब औजार एकत्र करती चलो. युवतियों में उत्साह था.
बताया जाता है जब रानी मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए स्त्रियों में जाग्रति लाने भाषण देती थी तो उसकी महिलावाहिनी की ही नहीं बल्कि बच्चियाँ,युवतियाँ और वृद्धाएं मुग्ध होकर सुनती रहती थी.
18 सितंबर 1857 को महाराजा शंकरसाहि और युवराज रघुनाथसाहि मातृभूमि की रक्षा करते शहीद हो गए थे. वीरांगना रानी फूलकुंअरि देव पति और पुत्र के शहादत के बाद विद्रोह का नेतृत्व करने लगी थी. उनके सहयोग में जबलपुर, मंडला, नरसिहपुर, दमोह, सिवनी आदि जिलों के ताल्लुकेदारों की सेनाएँ लड़ रहीं थीं. रानी के पास पुरुष दल के अतिरिक्त महिला वाहिनी की वीरांगनाएँ भी थी, जिसमे गढ़ा, बरगी, बरेला, पनागर, नारायणपुर, कटंगी, मंडला, माडौगढ़,भानपुरगढ़ी, देवगांव, मधुपुरी, सिंगपुर, खैरी, घोघरी, शहपुरा, मोकास, पौंडी, फूलसागर आदि की गोंड वीरांगनाएँ थी. रानी और उसकी वीरांगनाएँ पुरुष वेश में युद्ध करतीं थीं.
20 सितंबर 1857 को अंग्रेजी सेना रानी फूलकुंअरि देव को खदेड़ती हुई पचपेढ़ी,करौंदी की ओर बढ़ी थी, यहाँ भीषण युद्ध हुआ था, इस युद्ध में रानी के बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हुये थे, रानी ने अपनी सेना को पीछे हटकर मोर्चा लेने को कहा, उसकी सेना झिरिया-खम्हरिया,डमना की पहाड़ियों में बने गोंडकालीन बंकरों से गोरिल्ला युद्ध करके दुशमन को नाकों चने चबवाने लगी थी.
रानी के दमन के लिए कंपनी सरकार को इलाहाबाद से सेना बुलवानी पड़ी थी, युद्धपरंगता रानी फूलकुंअरि देव ककरतला,जैतपुरी होती हुई गौर नदी पर कर गई थी, यहाँ से बरेला, बीजादांडी,भानपुर, (नारायनगंज)में लड़ती हुई मंडला पहुंची थी.
रानी फूलकुंअरि देव मंडला के किले को अपने अधिकार में कर लिया था. वह किले से युद्ध का संचालन करने लगी थीं. मंडला में उस समय रानी के साथ उसकी महिला वाहिनी की वीरांगनाओं के अतिरिक्त बघराजी, कुंडम, बरेला, बीजाडांडी, नारायनगंज के ही लड़ाकू थे.
देवगांव,मधुपुरी,खैरी की सैकड़ों वीरांगनाएँ गुलवशों के नेतृत्व में रानी से आ मिली थीं. सभी पारंपरिक वेषभूषा में,हाथ में कुल्हाड़ी,उसी कुल्हाड़ी की बेंठ में छिवला के जड़ों से निकाली गई रस्सियाँ लिपटी हुईं थी. सभी के पास एक-एक धुतियाँ थी.
मोकास के ठाकुर खुमानसिंह मराबी भी अपने दीवान फत्तेसिंह मराबी के साथ रानी से जा मिले थे. ठाकुर के पास घोघरी,शाहपुरा से लूटे हुये शस्त्र थे. रानी ने लूटे गए शास्त्रों(बंदूकों) को क्रांतिकारियों में बांट दिया था. खुमानसिंह और फत्तेसिंह के मिलने से रानी की सैन्य-शक्ति बढ़ गई थी. मंडला का किला क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया था.
उस समय मंडला में डिप्टी कमिश्नर एच.एफ.वाडिंगटन था. मंडला छोटा नगर था और पूरा क्षेत्र लगभग शान्त था इसलिए यहाँ डिप्टी सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस तैनात किया गया था. सिपाहियों की संख्या और अंग्रेज अधिकारियों के चरणचुम्बियों की संख्या कम थी,जो रानी फूलकुंअरि देव के लड़ाकों के लिए नकाफी थी.
गदर को दबाने के लिए 52 वीं पलटन के कुछ विश्वसनीय सिपाहियों को बुलवाया गया था. क्रांतिकारियों ने अपना आक्रमण धीमा कर दिया था, वाडिंगटन को लगा बगावती भाग गए हैं,परंतु ऐसा नहीं था. क्रांतिकारी योजना बनाने में लगे थे |
20 मार्च 1858 को किसी ने वाडिंगटन को बताया कि, विद्रोही मंडला के ईशान में खैरी से और दक्षिण में महाराजपुर से हमला करने वाले है. उसने खैरी के लिए कूच किया था. वहाँ रानी फूलकुँअरि देव मोर्चा सम्हाले हुई थी. वाडिंगटन की सेना और रानी की सेना के बीच जोरदार मुठभेड़ हुई थी. रानी अपने पति और पुत्र को यादकर फिरंगियों का वध कर रही थी. रानी ने वाडिंगटन के तेरह घुड़सवार सैनिकों सहित दो अंग्रेज़ जमादारों को मौत के घाट उतार दिया था. दूसरी ओर उसके सहयोगी भी एक-एक कर मारे जा रहे थे.
रानी के पास कुछ ही सैनिक बचे थे, उनका पकड़ा जाना निश्चित था. तब अपने को असुरक्षित जान, रानी ने अपनी पूर्वजा महारानी दुर्गावती की भांति स्वयं को कटार मारकर खत्म कर लिया था. रानी के आत्म-बलिदान के बाद अफरा-तफरी मच गई थी. रानी को रणखेत में ही मिट्टी दी गई थी.
वीरांगना रानी फूलकुँअर देव की समाधि..
लालीपुर(मंडला) में है. वहीं कुछ दूर दो अंग्रेज़ बहादुरों की समाधियाँ हैं जिन्हें रानी ने भारत की मिट्टी मे मिलाया था.
एक निवेदन समाज से, राजनैतिक दलों से,उन संगठनों से जो वीर पुरुषों के नाम को भुनाते हैं किन्तु उन्हें भूल जाते हैं.
संभवतः रानी फूलकुँअर देव जानती रही होगी कि, उनके नाम से लोग केवल राजनीति करेंगे. इसलिए उन्होंने जनकल्याण का उदाहरण पेश कर बता दिया है.
रानी के नाम पर -
फूलसागर – गढ़ा में शाही नाका के पास है | रानी फूलकुंअरि देव ने मुँह दिखाई में मिलीं मुद्राओं से खुदवाया था. फूलसागर के चारों ओर घाट निर्मित थे जिन्हें रानीघाट, पुतरिया घाट, बाबाघाट(राजा बाबा), महादेव घाट कहा जाता था. फूलसागर का रकवा 0.672 हेक्टेयर है. वर्तमान में निजी संपत्ति है. उन्होंने एक तलैया खुदवाया था जो आज फुलहरी तलैया कहलाती है. मंडला में जहाँ वे युद्ध की थी. उनके नाम पर फूलसागर नामक गाँव है. Credit post- डॉ.टी.आर.बरकड़े (तुलसी बिरवा)
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