राहुल की सुनवाई करने वाले जज रह चुके हैं अमित शाह के वकील

Amit Shah's lawyer has been the judge who heard Rahul

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 'मोदी सरनेम'(modi surname) वाले मामले में सूरत के जिस सेशन कोर्ट(sessions court) में एक याचिका दायर कर खुद को दोषी क़रार दिए जाने वाले फ़ैसले पर रोक लगाने की अपील की है.

इस मामले की सुनवाई जज रॉबिन पॉल मोगेरा (Judge Robin Paul Mogera) कर रहे हैं, जो फ़ेक एनकाउंटर(Encounter Case) के एक मामले में गृह मंत्री अमित शाह( Amit Shah) के वकील रह चुके हैं.

जज बनने से पहले रोबिन पॉल मोगेरा गुजरात (Gujrat) में वकालत करते थे. उन्हें 2017 में ज़िला जज नियुक्त किया गया था.

वे वकीलों के लिए निर्धारित 25 प्रतिशत के कोटे से जज बने हैं. वकील के तौर पर अमित शाह उनके मुवक्किल रह चुके हैं.

उन्होंने सीबीआई कोर्ट (CBI Court ) में अमित शाह की तरफ़ से तुलसीराम प्रजापति (Tulsiram Pirjapati) के कथित फ़ेक एनकाउंटर (Fake Encounter) मामले में मुक़दमा लड़ा था.

प्रजापति का एनकाउंटर दिसंबर 2006 में हुआ था. प्रजापति 2005 में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर (sohrabuddin encounter) वाले मामले में चश्मदीद गवाह थे.

इन दोनों एनकाउंटर के समय गुजरात के गृह मंत्री (Home Minister) अमित शाह थे.

बाद में सोहराबुद्दीन शेख (Sohrabuddin Shaikh) और तुलसीराम प्रजापति तथाकथित फर्ज़ी मुठभेड़ मामले में केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) की एक विशेष अदालत ने अमित शाह को बरी कर दिया था.

अब सवाल ये उठ रहे हैं कि क्या कभी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के वकील रह चुके शख़्स को बतौर जज ऐसे मामले की सुनवाई करनी चाहिए?

क्या यह नैतिक रूप से उचित है? सुप्रीम कोर्ट(Supreme Court) के वरिष्ठ वकील शाश्वत आनंद ( Saswat Anand) का कहना है कि यह जज की नैतिकता पर निर्भर करता है.

वो कहते हैं, "मेरी राय में, चूँकि न्यायाधीश (Judge) ने एक वकील के रूप में एक ऐसे व्यक्ति का प्रतिनिधित्व किया है, जो सज़ायाफ़्ता-अपीलकर्ता के वर्तमान राजनीतिक विरोधियों में से एक हैं. उन्हें मामले में संभावित पूर्वाग्रह के किसी भी आरोप से बचने के लिए और निष्पक्ष प्रक्रिया के साथ साथ न्यायपालिका की गरिमा के हित में ख़ुद को केस से अलग कर लेना चाहिए. लेकिन वे ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं हैं."

आनंद ये भी कहते हैं कि मामलों से न्यायाधीशों का अलग होना भारत के किसी भी क़ानून में दर्ज नहीं है, लेकिन इसकी परंपरा रही है.

शाश्वत आनंद दावा करते हैं कि इस परंपरा का सबसे पुराना ज्ञात उदाहरण 1852 के एक मामले में मिलता है.

1852 का ये मामला ब्रिटिश अदालत में डाइम्स बनाम ग्रैंड जंक्शन कैनाल प्रोपराइटर(Dimes v Grand Junction Canal proprietor in British court), 3 एचएल केस नंबर 759 है.

जिसमें लॉर्ड चांसलर कॉटेनहैम(Lord Chancellor Cottenham) ने ख़ुद को मामले से अलग कर लिया था, क्योंकि उनके पास मामले में शामिल कंपनी के कुछ शेयर थे.

तब से सभी न्यायालयों में ये एक परंपरागत अभ्यास के रूप में विकसित हो गया.

आनंद यह भी बताते हैं, "सीआरपीसी की धारा 479 भी एक न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को उन मामलों की सुनवाई करने से रोकती है, जिनमें वे व्यक्तिगत रूप से रुचि रखते हैं("Section 479 of the CrPC also bars a Judge or Magistrate from hearing cases in which he is personally interested ). इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णयों में यह माना है कि अगर न्यायाधीश के पक्षपाती होने की आशंका है, तो न्यायाधीश को ख़ुद को मामले से अलग करना चाहिए."

शाश्वत आनंद का कहना है कि जो न्यायाधीश सुनवाई से अलग होना चाहते हैं, उन्हें यह स्पष्ट करने की ज़रूरत नहीं है कि वे क्यों इससे अलग हो रहे हैं.

कुछ मुक़दमों में जजों से कहा जाता है कि वो खुद को मामलों से अलग कर लें, लेकिन वो ऐसा नहीं करते.

दोनों तरह के कुछ उदाहरण मौजूद हैं:

एक उदाहरण में, तत्कालीन न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना ने एम नागेश्वर राव की बेटी की शादी में शामिल होने का हवाला देते हुए अंतरिम सीबीआई निदेशक एम नागेश्वर राव की नियुक्ति के ख़िलाफ़ मामले की सुनवाई से ख़ुद को अलग कर लिया था.

जज लोया के मामले में तत्कालीन जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ (मौजूदा मुख्य न्यायाधीश) को बार-बार सुनवाई से अलग होने के लिए कहा गया था, क्योंकि इस मामले में जिन पर इल्ज़ाम लगाए गए थे, वो बॉम्बे हाई कोर्ट(Bombay High court ) के मौजूदा जज थे, जहाँ से जस्टिस चंद्रचूड़ (Justice Chandrachud) ने जज के रूप में अपना करियर शुरू किया था, लेकिन उन्होंने केस से अलग होने से इनकार कर दिया था.

स्टेराइट से संबंधित इसी तरह के एक मामले में तत्कालीन जस्टिस एसएच कपाड़िया(Justice SH Kapadia) से वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण (Senior Advocate Prashant Bhushan) ने हितों के टकराव और पूर्वाग्रह के आधार पर मांग की थी कि वो ख़ुद को केस से अलग कर लें, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.

2016 में लालकृष्ण आडवाणी( Lal Krishna Advani ) और ( मुरली मनोहर जोशी ) के साथ ही बीजेपी-वीएचपी ( बीजेपी-वीएचपी) के अन्य नेताओं के ख़िलाफ़ आपराधि‍क साज़िश का मामला ख़त्म करने ख़िलाफ़ दायर याचिका की सुनवाई से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश गोपाल गौड़ा (Supreme Court Justice Gopal Gowda) ने बिना कोई कारण बताए ख़ुद को अलग कर लिया था.

पिछले महीने 23 मार्च को राहुल गांधी को सूरत की एक अदालत ने 2019 के मानहानि मामले में दोषी ठहराया था.

सूरत के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट एचएच वर्मा(Surat Chief Judicial Magistrate HH Verma) ने कांग्रेस सांसद को भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 के तहत मानहानि के अपराध के लिए दोषी ठहराते हुए दो साल के कारावास की सज़ा सुनाई और 15,000 रुपए का जुर्माना भी लगाया था.

राहुल गांधी ने 2019 के राष्ट्रीय चुनाव से पहले कर्नाटक के कोलार ज़िले में अपने एक भाषण में कहा था कि 'नीरव मोदी, ललित मोदी, नरेंद्र मोदी...इन सबका सरनेम मोदी कैसे है? कैसे सभी चोरों का सरनेम मोदी ही होता है.'

इसके बाद बीजेपी नेता और गुजरात के पूर्व मंत्री पूर्णेश मोदी (BJP leader and former Gujarat minister Purnesh Modi) ने आपराधिक मामला दायर किया और दावा किया कि राहुल गांधी ने अपनी टिप्पणी से मोदी समुदाय को बदनाम किया है.

अदालत के इस फ़ैसले के बाद राहुल गांधी की संसद सदस्यता चली गई. शुरू के दिनों में जब उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज हुआ था, तो उन्होंने ये कहा था कि ये मोदी सरकार की तरफ़ से उन्हें चुप कराने की एक कोशिश है.

राहुल गांधी की सदस्यता जाने पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे(Congress President Mallikarjun Kharge ) ने कहा था, "राहुल गांधी की लोकसभा से सदस्यता जाना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला दिन था. ट्रायल कोर्ट के फ़ैसले में कई क़ानूनी मुद्दे हैं, हालाँकि, हमारी क़ानूनी टीम द्वारा उचित मंच पर उनसे निपटा जाएगा."

राहुल गांधी ने तीन अप्रैल को सूरत में जज मोगेरा की अदालत में अपील दायर की थी.

जज ने 'मोदी सरनेम' वाले मानहानि केस में राहुल गांधी की अर्ज़ी पर उसी दिन जारी किए अपने आदेश में उनकी सज़ा को निलंबित कर दिया था.

उन्हें उनकी अपील पर लंबित सुनवाई के लिए ज़मानत दे दी थी और राहुल गांधी को 15,000 रुपए का ज़मानत बांड देने को कहा था.

जज रॉबिन पॉल मोगेरा 2014 में अमित शाह के वकील थे. जून 2014 में वकील मोगेरा ने अमित शाह की पैरवी करते हुए अपने मुवक्किल की व्यक्तिगत पेशी से दो अलग-अलग बार छूट की अपील की थी.

जज ने इस पर नाराज़गी जताई थी. कुछ ही दिनों बाद जज का तबादला हो गया था और उनकी जगह जस्टिस बीएच लोया को जज नियुक्त किया गया था.

बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने भी राहुल गांधी पर एक अलग आपराधिक मानहानि दर्ज किया है.

इस मामले में बिहार की एक विशेष अदालत ने राहुल गांधी को तलब किया था, जहाँ वो व्यक्तिगत रूप से शामिल नहीं हो पाए हैं. अब अदालत ने उन्हें 25 अप्रैल को हाज़िर होने को कहा है.

हाल के दिनों में सावरकर के ख़िलाफ़ टिप्पणी को लेकर भी राहुल गांधी को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है.

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे(Maharashtra Chief Minister Eknath Shinde ) सहित कई भाजपा और शिवसेना नेताओं ने उनकी टिप्पणियों के लिए उन्हें 'दंडित' करने की मांग की है.

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