भारत में अफ़ग़ानिस्तान के दूतावास ने अपना कामकाज बंद करने के लिए कथित तौर पर एक पत्र भारत सरकार को लिखा है.
यह खबर देश के कई बड़े अखबारों ने अपने यहां सूत्रों के हवाले से चलाई है, जिसमें समाचार एजेंसी पीटीआई भी शामिल है.
खबर में यह भी जानकारी दी गई है कि दूतावास में काम करने वाले भारतीय कर्मचारियों को बिना नोटिस दिए नौकरी से निकाल दिया गया है और कई राजनयिकों ने पश्चिमी मुल्कों में शरण लेने के लिए भारत छोड़ दिया है.
फिलहाल, भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस पत्र को लेकर कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है.
यह पत्र, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार के सत्ता में आने के करीब दो साल बाद सामने आया है, जिसने एक नए संकट को जन्म दे दिया है.
अगस्त, 2021 में तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में अशरफ़ ग़नी सरकार से सत्ता छीनकर कब्ज़ा कर लिया था.
लेकिन भारत में अफ़ग़ानिस्तान के दूतावास की कमान अभी भी अशरफ़ ग़नी के नियुक्त किए गए राजदूत फ़रीद मामुन्दज़ई के हाथ में है, जो पिछले करीब तीन साल से भारत में काम कर रहे हैं.
इस पत्र में भारत सरकार पर भी कथित तौर पर साथ न देने का आरोप लगाया गया है, वहीं अख़बारों ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि भारत ने इसे तालिबान सरकार का आंतरिक मामला बताया है.
सवाल है कि तालिबान सरकार क्या चाहती है?
क्या भारत में अफ़ग़ानिस्तान के दूतावास पर उसका कंट्रोल नहीं है?
क्या वह ग़नी सरकार के नियुक्त किए राजदूत को बदलना चाहती है?
क्या भारत सरकार तालिबान के किसी व्यक्ति को अफ़ग़ान दूतावास की जिम्मेदारी नहीं लेने देना चाहती?
और अगर दूतावास बंद हुआ, तो दोनों देशों के संबंधों पर इसका क्या असर होगा?
राजदूत का तालिबान सरकार से संघर्ष
अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता तालिबान के हाथ में आने के बाद ज़्यादातर देशों ने अपने यहां दूतावासों में तालिबान की नियुक्तियों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है.
हालांकि रूस, चीन, पाकिस्तान और ईरान जैसे कुछ देश ऐसे हैं जहां तालिबान के नियुक्त किए गए लोग दूतावास चला रहे हैं और वहां अफ़ग़ानिस्तान की लोकतांत्रिक ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान’ सरकार की जगह ‘इस्लामिक एमिरेट्स ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान’ का झंडा तक फहराया जा रहा है.
लेकिन भारत उन देशों में शामिल है, जहां अब तक साल 2020 में ग़नी सरकार के नियुक्त किए राजदूत फ़रीद मामुन्दज़ई हैं, हालांकि पिछले कुछ महीनों से वे देश से बाहर हैं.
कुछ महीने पहले भी तालिबान सरकार ने फ़रीद मामुन्दज़ई की जगह दूतावास के ट्रेड काउंसलर क़ादिर शाह को राजनयिक कामों की ज़िम्मेदारी देने की कोशिश की थी.
तालिबान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी ने खुद एक आदेश पारित कर दिल्ली में अफ़ग़ानिस्तान दूतावास से जुड़े मामलों को देखने के लिए आदेश जारी किया था, लेकिन दूतावास के कर्मचारियों ने ऐसा नहीं होने दिया और अंतत क़ादिर शाह के दूतावास में जाने पर रोक लगा दी गई है.
न सिर्फ भारत बल्कि चीन में भी तालिबान ने ऐसा ही किया था. साल 2022 में ग़नी सरकार के नियुक्त राजदूत ने इस्तीफ़ा दे दिया था, जिसके बाद वहां का कामकाज तालिबान के नियुक्त किए गए एक वरिष्ठ राजनयिक को सौंपा गया है.
जानकारों का मानना है कि भारत में अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत फ़रीद मामुन्दज़ई को यह भी डर है कि अगर तालिबान के नियुक्त किए गए किसी व्यक्ति को दूतावास की ज़िम्मेदारी दी गई, तो वह पहले से मौजूद अधिकारियों और उनके परिवारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर सकते हैं.
ऐसी स्थिति में दूतावास के अधिकारी, पश्चिमी देशों में शरण ले रहे हैं, क्योंकि वे तालिबान शासित देश में वापस नहीं लौटना चाहते.
क्या है भारत की स्थिति
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने पर भारत ने अस्थाई तौर पर काबुल में अपने दूतावास को बंद कर दिया था.
लेकिन साल भर बाद भारत ने अपने दूतावास में मानवीय सहायता के लिए एक टेक्निकल टीम भेजकर अफ़ग़ानिस्तान में अपनी राजनयिक उपस्थिति फिर से स्थापित की, लेकिन यह दूतावास पहले की तरह नहीं चल रहा है.
भारत, अफ़ग़ानिस्तान में एक समावेशी सरकार के गठन की वकालत कर रहा है.
ऐसी ही स्थिति दिल्ली स्थित अफ़ग़ानिस्तान दूतावास की भी है. भारत का कहना है कि यह तालिबान सरकार का अंदरूनी मामला है और नियुक्ति को लेकर भारत कुछ नहीं कर सकता.
जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के एमएमएजे एकेडमी ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ में प्रोफ़ेसर मोहम्मद सोहराब कहते हैं कि भारत में अफ़ग़ान राजदूत की वैधता को वहां की सरकार तय करेगी, यह भारत नहीं कर सकता.
वे कहते हैं, “सवाल है कि तालिबान सरकार को भारत कितनी वैधता देता है? ऐसे में भारत भी यह नहीं चाहता कि दिल्ली में तालिबान सरकार का कोई व्यक्ति अफ़ग़ान दूतावास की ज़िम्मेदारी संभाले, जो लोकतांत्रिक न हो, लेकिन भारत आधिकारिक तौर पर यह पोजिशन नहीं ले रहा है.”
बिना भारत की सहमति के दिल्ली में अपना राजदूत नियुक्त करना, तालिबान सरकार के लिए आसान नहीं है.
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में सेंटर फ़ॉर यूरोपियन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर गुलशन सचदेवा कहते हैं कि जब तक भारत, तालिबान को मान्यता नहीं देता, तब तक वे अपना राजदूत नियुक्त नहीं कर सकते.
वे कहते हैं, “अगर भारत सहमति देता है, तो यह भारत की नीति में बदलाव होगा. इसे भारत का तालिबान को मान्यता देना तो नहीं कहेंगे, लेकिन वर्किंग रिलेशन में यह एक नई कड़ी जोड़ने का काम होगा."
दूतावास बंद होने से नुकसान
भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच करीब 100 करोड़ अमेरिकी डॉलर का व्यापार होता है, जो भारत के कुल व्यापार का एक प्रतिशत भी नहीं है.
तालिबान के सत्ता में आने के बाद यह और कम हो गया है, ऐसे में व्यापार के नज़रिए से भारत का बहुत कुछ दांव पर नहीं है.
लेकिन हजारों ऐसे अफ़ग़ान शरणार्थी और अफ़ग़ान छात्र हैं, जो भारत में रह रहे हैं. दूतावास का बंद होना, इनके लिए मुश्किलें लेकर आएगा.
प्रोफेसर गुलशन सचदेवा कहते हैं, “भारत में बहुत सारे अफ़ग़ान नागरिक रहते हैं, वे अफ़ग़ानिस्तान में आते जाते रहते हैं. पासपोर्ट, वीजा या दूसरे दस्तावेजों को प्रमाणित करवाने के लिए वे दूतावास जाते हैं. अगर वह बंद होता है तो उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा. यही लोग दूतावास की आमदनी का ज़रिया भी हैं.”
मानवीय संकट को बढ़ाने के साथ साथ दूतावास का बंद होना भारत के लिए कई मायनों में मुश्किलें लेकर आ सकता है.
प्रोफ़ेसर मोहम्मद सोहराब कहते हैं कि चंद महीनों में अफ़ग़ानिस्तान और चीन एक दूसरे के करीब आए हैं. चीन वहां बड़े पैमाने पर निवेश करने के साथ साथ ईरान जैसे देशों के साथ उसके संबंधों को मजबूत करने के लिए मध्यस्थता भी कर रहा है.
वे कहते हैं, “तालिबान के साथ चीन की बढ़ती दोस्ती उसे भारत से दूर करने का काम करेगी. इसके साथ ही भारत के जो प्रोजेक्ट अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे हैं, वे सुस्त पड़ जाएंगे और दूतावास के जरिए आधिकारिक बातचीत का ज़रिया भी बंद हो जाएगा, जिसकी सिंबोलिक वैल्यू होती है, इससे भारत को नुकसान होगा.”
प्रोफ़ेसर सोहराब कहते हैं कि पहले और अब के तालिबान में बहुत फर्क है. पहले का तालिबान मान्यता चाहता था, लेकिन अब का तालिबान मान्यता को लेकर बहुत परेशान नहीं है और धीरे धीरे दुनिया खुद उसकी तरफ बढ़ रही है.
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