आदिवासी जोड़े को कैसे दिया जाए तलाक़’, अदालत ने उलटा वकील से पूछा सवाल

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने एक आदिवासी दंपति के तलाक़ के मामले में वकील से ही पूछा है कि आख़िर उनके आदिवासी मुवक्किल को किस तरह तलाक़ दिया जा सकता है?  पत्नी की ओर से कथित ‘प्रताड़ना के बाद तलाक़’ का यह मामला हाईकोर्ट तक पहुंचा था. लेकिन राज्य की शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ता के वकील से कहा कि आदिवासियों में तलाक़ के क्या तौर-तरीके हैं, इस बारे में अदालत को बताएं.  याचिकाकर्ता के वकील जयदीप सिंह यादव ने बीबीसी से कहा- “आदिवासी समाज में हिंदू-विवाह अधिनियम लागू नहीं होता. इसी तरह इस समाज पर विशेष विवाह अधिनियम भी लागू नहीं होता. ऐसे में तलाक़ के लिए भी इन क़ानूनों का सहारा नहीं लिया जा सकता. अदालत ने हमें आदिवासी समाज में प्रचलित तलाक़ की प्रथाओं के बारे में जानकारी देने के लिए निर्देशित किया है.”  अदालत के इस निर्देश के बाद, छत्तीसगढ़ में समान नागरिक संहिता और सरना कोड जैसे मुद्दे पर बहस शुरू हो गई है.

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने एक आदिवासी दंपति के तलाक़ के मामले में वकील से ही पूछा है कि आख़िर उनके आदिवासी मुवक्किल को किस तरह तलाक़ दिया जा सकता है?

पत्नी की ओर से कथित ‘प्रताड़ना के बाद तलाक़’ का यह मामला हाईकोर्ट तक पहुंचा था. लेकिन राज्य की शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ता के वकील से कहा कि आदिवासियों में तलाक़ के क्या तौर-तरीके हैं, इस बारे में अदालत को बताएं.

याचिकाकर्ता के वकील जयदीप सिंह यादव ने बीबीसी से कहा- “आदिवासी समाज में हिंदू-विवाह अधिनियम लागू नहीं होता. इसी तरह इस समाज पर विशेष विवाह अधिनियम भी लागू नहीं होता. ऐसे में तलाक़ के लिए भी इन क़ानूनों का सहारा नहीं लिया जा सकता. अदालत ने हमें आदिवासी समाज में प्रचलित तलाक़ की प्रथाओं के बारे में जानकारी देने के लिए निर्देशित किया है.”

अदालत के इस निर्देश के बाद, छत्तीसगढ़ में समान नागरिक संहिता और सरना कोड जैसे मुद्दे पर बहस शुरू हो गई है.

क्या कहता है विवाह का क़ानून

छत्तीसगढ़ में कुल 31 फ़ीसदी के आसपास आदिवासी जनसंख्या है और राज्य के 146 विकासखंडों में से 85, आदिवासी विकासखंड हैं.

छत्तीसगढ़ में कुल 42 आदिवासी जातियां निवास करती हैं और इनमें से अधिकांश जातियों की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताएं अलग-अलग हैं. इन जातियों के जन्म, मृत्यु, विवाह जैसे संस्कार में भी भिन्नता है.

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में जो ताज़ा मामला पहुंचा, वह कोरबा ज़िले का है.

भारिया आदिवासी समाज की विवाहिता ने पति पर प्रताड़ना का आरोप लगाते हुए पहले ज़िले के परिवार न्यायालय में याचिका दायर की थी. लेकिन वहां से मामला ख़ारिज हो गया.

इसके बाद उन्होंने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का रुख किया. हाईकोर्ट ने इस पर याचिकाकर्ता के वकील से जानना चाहा कि आदिवासियों में तलाक की क्या परंपरा है?

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की अधिवक्ता रजनी सोरेन बताती हैं कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा दो की उप धारा (2) में कहा गया है कि यह अधिनियम अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर तब तक लागू नहीं होगा, जब तक कि केंद्र सरकार आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा अन्यथा निर्देशित न करे.

डॉक्टर सूरजमणि स्टेला कुजूर बनाम दुर्गा चरण हांसदा व अन्य के मामले में 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि अगर पक्षकार अपने सामाजिक परंपरा या रूढ़ि का पालन करते हैं तो चाहे वो किसी भी धर्म या मत को मानते हों, उन पर प्रथागत क़ानून ही लागू होगा.

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की वकील रजनी सोरेन कहती हैं, “आदिवासियों में तलाक़ सहित कई मुद्दे समाज की पंचायत तय करती है. हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दतकत्ता और भरण-पोषण अधिनियम, हिंदू वयस्कता और संरक्षता अधिनियम जैसे कई क़ानून आदिवासी समाज पर आमतौर पर लागू नहीं होते. कोई आदिवासी परिवार किन मान्यताओं में भरोसा रखता है, उसके अनुसार अदालत को फ़ैसला लेना होगा.”

आदिवासी समाज के भीतर विवाह-विच्छेद यानी तलाक़ बहुत आम नहीं है. कुछ समुदायों में सीधे-सीधे पत्नी को घर से निकाल दिया जाता है.

वहीं, दूसरे विवाह की इच्छा रखने वाला व्यक्ति, पहली पत्नी को एक तयशुदा रक़म देकर विवाह कर सकता है. कुछ आदिवासी समाज में पत्नी को एक छोटी रक़म देकर तलाक़ लिया जा सकता है.

लेकिन इन सब मामलों में आदिवासियों की अपनी सामाजिक पंचायत का निर्णय सर्वोपरि होता है.

आदिवासियों पर लागू नहीं होते ये क़ानून

सर्व आदिवासी समाज के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम ने कहा कि विवाह, बहुविवाह, तलाक़, दत्तक, भरण-पोषण, उत्तराधिकार जैसे तमाम क़ानून आदिवासियों पर लागू नहीं होते.

अरविंद नेताम ने कहा, “आदिवासी समाज की लगभग सभी परंपराएं और रीति रिवाज, प्रथागत या रूढ़ियों यानी कस्टमरी लॉ से संचालित होती हैं. यह रूढ़ियां ही उसकी विशिष्ठ पहचान हैं. यही विशिष्ठता उसे दूसरी तमाम जातियों, समुदायों और धर्मों से अलग करती है. ऐसे में समान नागरिक संहिता जैसे प्रावधानों पर आदिवासियों को सचेत रहने की ज़रूरत है. जिस तरह से झारखंड ने सरना कोड लागू करने की मांग की है, उसी तरह से देशभर में आदिवासियों के लिए अलग कोड लागू करने की ज़रूरत है.”

हालांकि, सामाजिक कार्यकर्ता इंदू नेताम इससे सहमत हैं कि आदिवासियों के पारंपरिक रीति रिवाज में हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं है, लेकिन वे इसमें कुछ ज़रूरी बदलावों की पक्षधर हैं.

इंदू नेताम ने बीबीसी से कहा, “किसी भी परंपरा, प्रथागत या रूढ़ि में इस बात का ध्यान रखना ही चाहिए कि संविधान ने हर नागरिक को जो मौलिक अधिकार दिए हैं, उसकी हर परिस्थिति में रक्षा हो. विशेष रूप से महिलाओं के मामले में कई समाज आज भी मौलिक अधिकारों के पक्षधर नहीं हैं. उसमें बदलाव की ज़रूरत है.”

हाशिए पर महिलाएं

हालांकि, अधिकांश आदिवासी समाजों में कहने के लिए परिवार की व्यवस्था मातृसत्तात्मक है लेकिन पंचायत के फ़ैसले आमतौर पर पुरुष प्रधान समाज ही तय करता है और अधिकांश मामलों में महिलाएं हाशिए पर होती हैं.

यहां तक कि पिता या पति की संपत्ति में अधिकार से भी महिलाओं को वंचित ही रखा जाता है.

कांकेर ज़िले में एक आदिवासी महिला के ससुर ने यह कहकर एक तरफा 25 गांवों की पंचायत बुलाकर विवाह विच्छेद का फ़ैसला करवा दिया कि बहू उसकी बात नहीं मानती.

पंचायत ने बहू को भरण-पोषण के लिए एकमुश्त 35 हज़ार और दूधमुंहे बच्चे के लिए एकमुश्त 25 हज़ार रुपये का मुआवज़ा तय किया. इसके अलावा इस पंचायत ने 45 हज़ार रुपये पंचायत को भी देने का फ़ैसला सुनाया.

एक आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता कहती हैं, “आप कल्पना करिए कि एक पंचायत, जिसका महिला के जीवन से कोई लेना-देना नहीं है, उसे अपने लिए तो 45 हज़ार रुपये चाहिए लेकिन एक महिला को पूरी ज़िंदगी चलाने के लिए वह केवल 35 हज़ार रुपये देना चाहती है. एक दूधमुंहे बच्चे के पालन-पोषण में उसके बालिग होने तक केवल 25 हज़ार रुपये ख़र्च होंगे?”

हालांकि, इस मामले में बात ज़िले की आदिवासी पंचायत तक पहुंची और किसी तरह पति-पत्नी साथ में रहने के लिए राजी हुए.

लेकिन कुछ मामलों में पंचायत के फ़ैसले, रीति-रिवाज की आड़ लेने वालों पर भारी भी पड़ते हैं.

कांकेर में ही एक आदिवासी पशु चिकित्सक ने अपनी पत्नी को छोड़ कर एक दूसरी महिला से विवाह करना तय किया.

उसने पंचायत में कहा कि आदिवासियों में बहुविवाह चलन में है, इसलिए वह दोनों महिलाओं को पत्नी के रूप में रखेगा.

पंचायत ने बहुत सोच-विचार के बाद फैसला सुनाया कि चिकित्सक पति अगर दूसरी महिला से विवाह करना चाहता है तो उसे अपने वेतन की आधी रक़म हर महीने, पहली पत्नी को देनी होगी. ऐसे में चिकित्सक को आख़िरकार दूसरी शादी का फ़ैसला टालना पड़ा.

सामाजिक कार्यकर्ता इंदू नेताम का कहना है कि आदिवासियों की सामाजिक पंचायतें ज़रूरी हैं. लेकिन पंचायतों में महिलाओं को हाशिये पर डालने की बरसों पुरानी परंपरा, कहीं न कहीं रूढ़ियों की कमज़ोरियां उजागर करती हैं.

इंदू नेताम कहती हैं, “देश में जब समान नागरिक संहिता की बात चलती है तो हमारा आदिवासी समाज उसके विरोध में खड़ा हो जाता है. अपनी परंपराओं और संस्कृति की रक्षा के लिए ज़रूरी भी है. लेकिन हमें अपनी उन कुरीतियों को जल्दी से जल्दी छोड़ देने की ज़रूरत है, जो संविधान के मौलिक अधिकारों का हनन करती हैं. ऐसा नहीं होने की स्थिति में, कहीं न कहीं हमारा आदिवासी समाज, समान नागरिक संहिता के लिए एक अवसर उपलब्ध करा देगा.”

फिलहाल तो सबको हाईकोर्ट के फ़ैसले का इंतज़ार है, जो संभवतः आदिवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक और रूढ़ियों से जुड़े विमर्श को नए सिरे से परिभाषित कर सकता है.

News Source-BBC NEWS

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