आने वाले आम चुनाव में बीजेपी और बीजू जनता दल (बीजेडी) के बीच गठबंधन को लेकर बीते दो सप्ताह से चल रही अटकलबाज़ी आज पूरी तरह हो गई हैं.
भारतीय ज़नता पार्टी के ओडिशा राज्य के प्रदेश अध्यक्ष मनमोहन सामल ने आज घोषणा की करते हुए कहा कि उनकी पार्टी राज्य के सभी 21 लोकसभा और 147 विधानसभा सीटों पर अकेले लड़ेगी.
लेकिन जिस सोशल मीडिया पोस्ट के ज़रिए सामल ने यह घोषणा की, उसी में यह भी संकेत मिल रहा है कि बीजेपी ने चुनाव बाद बीजेडी के साथ अनौपचारिक समझौते के लिए द्वार खुला रखा है.
उन्होंने पिछले 10 वर्षों में राष्ट्रीय महत्व के कई प्रसंगों में मोदी सरकार को समर्थन देने के लिए बीजेडी के प्रति "आभार" प्रकट किया है.
उन्होंने पूरे पोस्ट में बीजेडी या सरकार या पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं कहा है.
केवल ओड़िया अस्मिता, गौरव और लोगों के हित का हवाला दिया गया है और ओडिशावासियों की "आशा, अभिलाषा और आकांक्षाओं" को पूरा करने की बात कही है.
आपको बता दें कि सामल ने अपना यह पोस्ट ओड़िया के साथ साथ हिंदी में भी किया है. राजनेतिक विश्लेषक इसका यह अर्थ निकाल रहे हैं कि पूरा टेक्स्ट बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से आया है, जिसे बाद में अनुवाद किया गया है.
गठबंधन को लेकर दोनों पक्षों के बीच पिछले 15 दिनों से चल रही बातचीत भले ही विफल हो गई हो. सामल के पोस्ट से इस बात का संकेत ज़रूर मिलता है कि चुनाव के बाद भी दोनों पार्टियों में मधुर संपर्क बना रहेगा.
और अगर एनडीए गठबंधन तीसरी बार सत्ता में आती है, तो संसद में और संसद के बाहर भी सरकार को बीजेडी का समर्थन और सहयोग मिलता रहेगा.
मोदी के दौरे से गठबंधन को मिली थी हवा!
पिछले कुछ हफ्तों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो बार ओडिशा के दौरे पर आए; पहली बार 3 फरवरी को संबलपुर और दूसरी बार 5 मार्च को चंडीखोल.
दोनों ही बार मोदी मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के साथ एक मंच पर दिखे और बाद में मोदी ने आमसभा को भी संबोधित किया.
दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता ये देखने के लिए उत्सुकता से इंतज़ार कर रहे थे कि प्रधानमंत्री, पटनायक, उनकी पार्टी या सरकार के ख़िलाफ़ कुछ बोलते हैं या नहीं.
लेकिन दोनों ही बार मोदी ने नवीन या उनकी सरकार के बारे में एक शब्द नहीं कहा. उल्टा नवीन को "मेरे मित्र" संबोधन किया और उन्हें "लोकप्रिय मुख्यमंत्री" बताया.
मोदी के दूसरे दौरे के बाद से ही दोनों पक्षों में गठबंधन की चर्चाएं सुर्खियों में थीं.
लेकिन अब जब कि यह स्पष्ट हो गया है कि बीजेपी अकेले चुनाव लड़ने जा रही है, देखना यह है कि मोदी जब चुनाव प्रचार के लिए ओडिशा आएंगे, तब उनके रवैये में कोई बदलाव आता है या नहीं.
जिस समय बीजेडी की एनडीए में वापसी की चर्चा ज़ोरों पर थी, उस समय भी दोनों पार्टियों के नेता यह दावा कर रहे थे कि वे अपने दमखम पर लोकसभा और विधानसभा चुनाव जीतने की क्षमता रखते हैं.
हाल ही में एक निजी समाचार चैनल के कार्यक्रम में नवीन पटनायक के बाद इस समय बीजेडी के सबसे प्रभावशाली नेता वीके पांडियन ने कहा था कि 'न विधानसभा चुनाव जीतने के लिए नवीन को बीजेपी की ज़रूरत है और न ही मोदी को लोकसभा चुनाव जीतने के लिए बीजेडी का समर्थन चाहिए.'
सवाल उठता है कि गठबंधन की बात आई कहां से? किसे थी इसकी ज़रूरत? और दो हफ्तों तक दोनों पार्टियों ने गठबंधन की चर्चा का खंडन क्यों नहीं किया?
दोनों पार्टियों की मजबूरी!
सच यह है कि दोनों पार्टियों के शीर्ष नेता ही गठबंधन के लिए उत्सुक थे जबकि दोनों ही पार्टियों के आम कार्यकर्ता इससे बेहद नाराज़ थे.
दोनों दलों के शीर्ष नेता अपने अपने राजनैतिक कारणों से गठबंधन चाहते थे. बीजेपी इसलिए गठबंधन चाहती थी कि बीजेडी के साथ आ जाने से पार्टी को अपने "अबकी बार, 400 पार" के लक्ष्य हासिल करने में मदद मिलेगी.
साथ ही लगातार 24 साल तक मुख्यमंत्री बने नवीन जैसे लोकप्रिय नेता के एनडीए में आ जाने से देशभर में बीजेपी के लिए एक सकारात्मक संदेश जाएगा जिसका फायदा पार्टी को मिलेगा.
एक वजह यह भी थी कि 15 साल बाद ओडिशा में राज्य सरकार में भी पार्टी को भागीदारी मिलती.
दूसरी तरफ बीजेडी क्यों गठबंधन चाहती थी, इसे लेकर राजनैतिक जानकारों की अलग अलग राय है.
कुछ का कहना है कि बीजेडी सार्वजनिक रूप से कुछ भी कहे, लेकिन इस बार पार्टी की स्थिति वैसी नहीं है जैसी 2019 या उससे पहले थी.
लगातार पांच बार सत्ता में रहने के बाद पार्टी को पहली बार 'सत्ता विरोधी लहर' का सामना करना पड़ रहा है. जानकार मानते हैं कि इस बार लोकसभा और विधानसभा में पार्टी की संख्या में भारी गिरावट आ सकती है.
इसलिए चुनाव से पहले मुख्य विरोधी दल से हाथ मिलाना बीजेडी के लिए राजनैतिक मजबूरी बन गई थी.
हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बीजेपी के गठबंधन के प्रस्ताव को ठुकरा देने पर कहीं चुनाव के बाद नवीन सरकार का भी वही हश्र न हो जाए जो झारखंड, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और दिल्ली की गैर बीजेपी सरकारों का हो रहा है.
नवीन के राज में राज्य में खनन स्कैम, चिट फंड स्कैम जैसे कई घोटाले हुए, लेकिन बीजेडी और बीजेपी के मधुर संबंध के कारण प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग जैसी केंद्रीय एजेंसियों ने अभी तक ओडिशा का रुख़ नहीं किया.
गठबंधन के लिए राज़ी न होने पर कहीं ये एजेंसियां नवीन के लिए समस्या पैदा न कर दें, बीजेडी को यही चिंता सता रही थी.
लेकिन गठबंधन के लिए बीजेडी के आग्रह का सबसे विश्वसनीय कारण यह है कि ऐसा करके पार्टी के ताक़तवर नेता वीके पांडियान, जिन्हें कई लोग नवीन के उत्तराधिकारी के रूप में देख रहे हैं, अपने राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करना चाहते थे.
ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें पता था कि नवीन पटनायक के बाद पार्टी में उनके ख़िलाफ़ बगावत होना तय है. नवीन के डर से जो नेता उनका सम्मान कर रहे हैं, वही कल उनके ख़िलाफ़ जंग छेड़ देंगे.
ऐसे में बीजेपी अगर उनके साथ हो, तो उन्हें सत्ता पर कब्ज़ा बनाए रखना आसान होगा. गौरतलब है कि नवीन अब 77 साल के हो चुके हैं और शारीरिक रूप से काफ़ी कमज़ोर हो गए हैं.
बात क्यों नहीं बनी?
गठबंधन पर दोनों पक्षों में सहमति न होने को लेकर भी कई तरह का अंदाज़ा लगाया जा रहा है.
कुछ जानकारों का कहना है कि लोकसभा के लिए बीजेपी के लिए 13-14 सीटें छोड़ने के लिए बीजेडी तैयार थी, लेकिन विधानसभा के लिए वह खुद 100 से अधिक सीटों पर लड़ना चाहती थी ताकि 147 सदस्यों की विधानसभा में सरकार बनाने के लिए और बनाए रखने के लिए उसे बीजेपी पर निर्भर न रहना पड़े.
लेकिन सूत्रों का कहना है कि गठबंधन इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि बीजेडी इस बात पर अड़ गई कि वह न तो केंद्र सरकार में शामिल होगी ना राज्य सरकार में बीजेपी को भागीदारी देगी.
ये बीजेपी को बिल्कुल मंज़ूर नहीं था!
हालांकि चुनाव परिणाम जो भी आए, बहुत कम लोगों को लगता है कि दोनों पार्टियों में आर-पार की लड़ाई होगी.
अधिकांश लोगों का यही मानना है कि अगर सचमुच लड़ाई हुई भी तो चुनाव के बाद दोनों पार्टियों के बीच एक बार फिर वही "अनौपचारिक गठबंधन" शुरू हो जाएगा, जो 2019 के चुनाव के बाद से चलता आ रहा है.
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