CAA पर अमेरिका और यूएन ने जताई चिंता, कतर के अल-जज़ीरा ने कहा ‘हज़ारा, अहमदिया और रोहिंग्या से भेदभाव’ जानें विदेशी मीडिया ने क्या कहा

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केंद्र सरकार ने इस हफ़्ते नागरिकता संशोधन नियम की अधिसूचना जारी कर दी है.

साल 2019 में बने इस क़ानून को चार साल बाद मोदी सरकार ने लागू करने का फ़ैसला किया है.

जब ये क़ानून बना था तो देश के कई हिस्सों में इसे लेकर विरोध प्रदर्शन हुआ था.

सामाजिक कार्यकर्ता, मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाएं और समाज के एक तबके ने इस क़ानून को भारतीय संविधान की आत्मा के ख़िलाफ़ बताते हुए इसका विरोध किया था.

साल 2019 में जब सीएए को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू हुए थे तो इसका अंत दिल्ली दंगों की शक्ल में हुआ. इन दंगों में 53 लोगों की मौत हुई थी.

अब जब ये चुनावी साल में लागू किया जा रहा है तो विपक्षी पार्टियां इसे चुनावी दांव बता रही हैं.

सीएए को लेकर ना सिर्फ़ देश में बल्कि विदेशों में भी काफ़ी चर्चा है.

विदेशों में इसे कैसे देखा जा रहा है और इसकी कैसी चर्चा है, यही समझने के लिए हमने अंतराष्ट्रीय अख़बारों में इसकी कवरेज पर नज़र डाली.

अमेरिका और यूएन ने जताई चिंता

न्यूज़ एजेंसी के रॉयटर्स के अनुसार, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने इस क़ानून पर चिंता ज़ाहिर की है.

संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि ये ‘क़ानून मूल रूप से भेदभाव करने वाला’ क़ानून है.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त के कार्यालय के एक प्रवक्ता ने रॉयटर्स से कहा, "जैसा कि हमने 2019 में कहा था, हम चिंतित हैं कि भारत का नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 2019 (सीएए) मूल रूप से भेदभावपूर्ण है और भारत के अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों का उल्लंघन है."

उन्होंने ये भी कहा कि हम नागरिकता संशोधन नियम जिसकी अधिसूचना जारी की गई है, उसे पढ़ रहे हैं और हमें देखना है कि ये अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार के नियमों के अनुरूप है या नहीं.

अमेरिका ने भी भारत के नए नागरिकता क़ानून को लेकर शंका ज़ाहिर की है.

अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा, "हम 11 मार्च को जारी किए गए नागरिकता संशोधन नियम की अधिसूचना को लेकर चिंतित हैं. हम बारीकी से देख रहे हैं कि यह अधिनियम कैसे लागू किया जाएगा."

“धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान और सभी समुदायों के लिए क़ानून के तहत समान व्यवहार मौलिक लोकतांत्रिक सिद्धांत हैं.”

रॉयटर्स लिखता है कि समाजिक कार्यकर्ता ये मानते हैं कि नेशनल सिटिजन रजिस्टर के साथ इस क़ानून को मिलाकर भारत के 20 करोड़ मुसलमानों से भेदभाव किया जाएगा, कुछ को ये भी डर है कि इससे कई ऐसे मुसलमान जो सीमा के पास के राज्यों में रहते हैं और जिनके पास दजस्तावेज़ नहीं हैं, उनकी नागरिकता जा सकती है.

मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस क़ानून के नोटिफ़ाई होने पर कहा, “सीएए धर्म के आधार पर भेदभाव को जायज़ बनाता है. यह अधिनियम अपनी संरचना में ही भेदभाव वाला है. ये क़ानून श्रीलंका के मुसलमानों और तमिल के प्रति भेदभाव करता है. नेपाल और भूटान जैसे देशों के प्रवासियों को नागरिकता से दूर रखता है.”

“साल 2019 में जब शांतिपूर्वक विरोध हो रहा था तो सुरक्षा एजेंसियों ने अत्यधिक बल का इस्तेमाल किया, लोगों को हिरासत में लिया गया. हम अपील करते हैं कि प्रशासन लोगों की अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान करे.”

‘मोदी का चुनाव से पहले संदेश’

अमेरिका का जाना-माना अख़बार न्यूयॉर्क टाइम्स लिखता है कि भारत में चुनावों से कुछ हफ़्ते पहले नागरिकता क़ानून लागू किया जा रहा है.

क़ानून दिल्ली में साल 2020 में हुए दंगों के बाद से ठंडे बस्ते में पड़ा था.

सोमवार को मोदी सरकार ने एलान किया कि उसने सीएए की बारीकियों के साथ नया नागरिकता नियम तैयार कर लिया है और इसे लागू किया जा रहा है.

न्यूयॉर्क टाइम्स लिखता है कि भारत में अप्रैल और मई में चुनाव होने वाले हैं और चुनाव की तारीख़ों की घोषणा इसी महीने होने वाली है.

एनवाईटी ने लिखा है, इससे ठीक पहले ही ये क़ानून लागू करके मोदी ने जनता को अपना वादा पूरा करने का संकेत दिया है और हिंदू शरणार्थियों वाले ज़िलों में ये क़दम मोदी के लिए चुनावी गणित को बदल सकता है.

एनवाईटी ने लिखा है, राजनीति को अगर किनारे करके देखें तो इस क़ानून से भारत की विविधता से भरी डेमोग्राफ़ी तो नहीं बदलने वाली है, कम से कम ये कानून अपने दम पर तो ऐसा नहीं कर पाएगा, लेकिन इससे मोदी ने ये साफ़ कर दिया है वो भारत के गणतंत्र को अपने तरीक़े से परिभाषित करना चाहते हैं. उनके ‘हिंदू-फर्स्ट’ विजन को लेकर वो किसी का विरोध बर्दाश्त नहीं करेंगे.

एसोसिएट प्रेस ने इस पर छापी गई रिपोर्ट में लिखा है कि क़ानून को मई में होने वाले आम चुनाव से पहले लागू किया जा रहा है और ये भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख चुनावी वादों में से एक रहा था.

मोदी सरकार तर्क देती है कि ये कानून पड़ोसी देशों में धर्म के आधार पर प्रताड़ित लोगों को शरण देगा लेकिन इससे भारत के मुसलमानों को कोई खतरा नहीं है.

लेकिन नेशनल सिटिजन रजिस्टर भी मोदी सरकार की नीतियों का हिस्सा है जिसके ज़रिए भारत से ग़ैर-क़ानूनी मुसलमानों को निकालने का प्लान तैयार किया गया है. इसे अभी केवल असम में लागू किया गया है.

क़ानून के जानकारों, विपक्षी पार्टियों का कहना है कि ये क़ानून संविधान के सेक्लुयर सिद्धांतों का उल्लंघन करता है.

‘हज़ारा, अहमदिया और रोहिंग्या से भेदभाव’!

क़तर के प्रसारक अल-जज़ीरा ने भी इस पर एक रिपोर्ट छापी है.

अल-जज़ीरा लिखता है कि सीएए के आने से पहले भारत में नागरिकता पाने का आधार धार्मिक पहचान नहीं हुआ करता था.

जो भी नागरिकता चाहता था उसे बस ये दिखाना था कि वह क़ानूनी तरीक़े भारत में आए हैं और 11 साल से भारत में रह रहे हैं. नागरिकता के लिए यही नियम थे.

नए नियम के बाद पाकिस्तान के अहमदिया, अफ़ग़ानिस्तान के हज़ारा और म्यांमार से रोहिंग्या जैसे प्रताड़ित अल्पसंख्यों को भारत आने के बाद नागरिकता के लिए 11 साल तक इंतज़ार करना होगा. लेकिन हिंदू, पारसी, सिख, बौद्ध, ईसाई या जैन हैं तो उन्हें बस वैध दस्तावेज़ दिखाने होंगे और पांच साल में उन्हें नागरिकता मिल जाएगी.

हालांकि सीएए के तहते उन्हें ही फ़ायदा मिलेगा जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आए थे.

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