यूपी में चंद्रशेखर की जीत यूपी में मायावती की राजनीति पर क्या असर डालेगी?

 

यूपी में चंद्रशेखर की जीत यूपी में मायावती की राजनीति पर क्या असर डालेगी?

What Will Be The Impact Of Chandrashekhar's Victory On Mayawati's Politics In UP: लोकसभा चुनाव में दलित नेता चंद्रशेखर आज़ाद ने यूपी की नगीना (सुरक्षित) सीट पर भारतीय जनता पार्टी के ओम कुमार को डेढ़ लाख से भी ज़्यादा वोटों से हराकर जीत हासिल की है.

What Will Be The Impact Of Chandrashekhar's Victory On Mayawati's Politics In UP: इस अहम सीट पर बीएसपी के उम्मीदवार सुरेन्द्र पाल सिंह चौथे नंबर पर रहे, जिन्हें महज़ 13 हज़ार वोट ही मिले. ये अहम है क्योंकि साल 2019 में बसपा प्रत्याशी गिरीश चंद्र ने इस सीट पर जीत दर्ज की थी. तब सपा और बसपा के बीच गठबंधन था. इस जीत के बाद बीबीसी के सहयोगी पत्रकार शहबाज़ अनवर से बात करते हुए चंद्रशेखर ने कहा, "मैं नगीना की जनता को विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि आख़िरी क्षण तक लोगों की सेवा करूंगा. जिन्होंने वोट दिया है, उन सबसे और दलित-मुस्लिम समाज से कहूंगा कि उन्होंने जो मुझ पर क़र्ज़ चढ़ाया है, जीवन के आख़िरी क्षण तक चुकाऊंगा."

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 36 साल के चंद्रशेखर की इस जीत के कई मायने हैं. ख़ासतौर पर बहुजन समाज पार्टी की राजनीति के लिए, जो इस चुनाव में खाता तक नहीं खोल पाई.

वरिष्ठ पत्रकार शीतल पी सिंह कहते भी हैं, “मायावती का राष्ट्रीय राजनीति में धीरे-धीरे अप्रासंगिक होना और चंद्रशेखर की जीत ने उन्हें ये मौक़ा दिया है कि वो पूरे भारत में अपना संगठन मज़बूत करें. चंद्रशेखर के पास ये सुनहरा मौक़ा है. परिस्थितियां उनके अनुकूल हैं, उनका स्वास्थ्य और उम्र साथ है.”

दलित राजनीति का युवा चेहरा!

उत्तर भारत की दलित राजनीति में चंद्रशेखर एक युवा चेहरा हैं. वह सड़कों पर दलितो और अन्य वंचित समूह के लिए उतरने से परहेज नहीं करते हैं और संघर्ष के दौरान जेल भी कई बार जा चुकें है.

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले की बेहट तहसील के चंद्रशेखर ने साल 2012 में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी से क़ानून की डिग्री ली.

चुनावी हलफ़नामे में उनका नाम चंद्रशेखर है, लेकिन वह चंद्रशेखर आज़ाद से लोगो के मध्य जानें जाते हैं. उनके पिता गोवर्धन दास सरकारी स्कूल में शिक्षक थे और माँ घर-बार संभालती हैं.

साल 2015 में भीम आर्मी नाम का संगठन बना कर चंद्रशेखर चर्चा में आए थे.

भीम आर्मी का दावा है, उसका मक़सद जाति आधारित हमले और दंगों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना और दलित बच्चों में शिक्षा का प्रचार प्रसार करना है.

साल 2015 से ही देश के अलग-अलग हिस्सों से दलित उत्पीड़न के मामलों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में भीम आर्मी सक्रिय रही है.

15 मार्च 2020 को चंद्रशेखर आज़ाद ने आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) का गठन किया, जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष वह ख़ुद हैं.

ये पार्टी बाबा साहब भीमराव आंबेडकर, गौतम बुद्ध, संत रविदास, संत कबीर, गुरु नानक देव, सम्राट अशोक आदि को अपना आदर्श मानती है.

पार्टी वेबसाइट के मुताबिक़ पार्टी का मक़सद, “देश के साधन, संसाधन और उद्योग-व्यापार के साथ सरकारी, प्राइवेट नौकरियों में वंचित वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित कराना है.

पार्टी वेबसाइट पर कांग्रेस, बीएसपी और बीजेपी तीनों को ही निशाना बनाते हुए लिखा गया है, “ऐसे समय में जब ‘हाथ’ निरंतर कीचड़ पैदा कर ‘कमल’ को खिलने का मौक़ा दे रहा हो. हमारे समाज में बहुत सारे नेता भाई भतीजावादी हों, उम्र के पड़ाव में ‘माया’ बचाने को समझौतावादी होकर मनुवादियों की कठपुतली बन गए हों...”

चंद्रशेखर की राजनीति-  "सरकार किसी की भी बने... जनता के अधिकार को हम सरकार के जबड़े से छीन कर लाएंगे!

चंद्रशेखर की राजनीति-  "सरकार किसी की भी बने... जनता के अधिकार को हम सरकार के जबड़े से छीन कर लाएंगे!

चंद्रशेखर की पार्टी आसपा (आज़ाद समाज पार्टी ) ने अपने उम्मीदवार छत्तीसगढ़, बिहार, दिल्ली, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में खड़े किए थे. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुनील कुमार चित्तौड़ बीबीसी से कहते हैं, “पार्टी ने यूपी में भी चार जगह उम्मीदवार उतारे थे लेकिन हमें जीत सिर्फ़ नगीना सीट पर जीत मिली है. चंद्रशेखर को लोगों ने संसद भेजा है. हमलोग संगठन को मज़बूत करेंगें और आगे आने वाले चुनाव लड़ेंगे.”

बीबीसी के सहयोगी पत्रकार शहबाज़ अनवर से बात करते हुए चंद्रशेखर ने कहा कि, "सरकार किसी की भी बने... जनता के अधिकार को हम सरकार के जबड़े से छीन कर लाएंगे. अगर किसी ग़रीब पर कोई जुल्म करेगा, जैसे मॉब लिंचिंग पहले होती थी, घोड़ी पर बैठने पर, मूंछे रखने पर हत्या होती थी. अगर कहीं जुर्म होगा तो सरकार को चंद्रशेखर आज़ाद का सामना करना पड़ेगा.''

''सरकार कुछ भी करे लेकिन इंसान की हत्या को रोके....जाति और धर्म के आधार पर अन्याय नहीं होने देंगे. होगा तो चंद्रशेखर आज़ाद से टकराना होगा, ये बात सब लोग जान लें."

चंद्रशेखर को यूपी में एक दलित युवा नेता के उभार के तौर पर देखा जा रहा है. लेकिन दलित चिंतक, स्तंभकार और ‘कांशीराम के दो चेहरे’ सहित कई पुस्तकों के लेखक कंवल भारती की राय अलग है.

कंवल भारती कहते हैं, “चंद्रशेखर दलित राजनीति का नया चेहरा तो बनेंगे लेकिन उनसे अभी बहुत उम्मीद नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास दलित मुक्ति का कोई विज़न नहीं है. वो तात्कालिक परिस्थितियों के हिसाब से रिएक्ट करते हैं. लेकिन निजीकरण, उदारीकण से लेकर दलितों को हिन्दुत्व फोल्ड से बाहर निकालकर लाने के लिए उनके पास कोई विचारधारा नहीं है.”

चंद्रशेखर की जीत से माय़ावती को कितना नुकसान?

फ़ारवर्ड प्रेस के हिंदी के संपादक और जातियों की आत्मकथा पुस्तक के लेखक नवल किशोर कुमार भी चंद्रशेखर की सांगठनिक क्षमता पर सवाल उठाते हैं.

वह कहते हैं, “नगीना में अल्पसंख्यकों और दलितों की आबादी अच्छी है. बीएसपी चुनाव जीतने के लिए नहीं बल्कि वोट काटने या अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए लड़ती है. इन हालात में चंद्रशेखर जीते हैं. वो आक्रामक तो हैं, लेकिन उन्हें अपनी सांगठनिक क्षमता पर काम करना होगा. मूंछ से ज्यादा विवेक से काम लेना होगा.”

नवल किशोर के मुताबिक़, ''जिस तरह बिहार की पूर्णिया सीट पर निर्दलीय पप्पू यादव की जीत हुई है, उसी तरह से नगीना में चंद्रशेखर की जीत को देखना चाहिए. इससे दलितों की राजनीति पर बहुत असर नहीं पड़ेगा.’'

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पद तक पहुंचीं मायावती क्या अब अप्रासंगकि हो गई हैं? कई विशेषज्ञ बीते कुछ चुनावों में उनकी पार्टी के प्रदर्शन के बाद यही सवाल उठा रहे हैं.

1984 में बनी बीएसपी का वोट बैंक अनुसूचित जाति के लोग रहेहैं. बीएसपी कई राज्यों की चुनावी राजनीति में सक्रिय है, लेकिन पार्टी का व्यापक आधार उत्तर प्रदेश ही रहा है.

मायावती ने चुनाव परिणामों के बाद कहा, ‘'दलित वोटरों में मेरी ख़ुद की जाति के ज़्यादातर लोगों ने वोट बीएसपी को देकर अपनी अहम ज़िम्मेदारी निभाई है. उनका मैं आभार प्रकट करती हूँ. साथ ही मुस्लिम समाज, जिसको कई चुनाव में उचित पार्टी प्रतिनिधित्व दिया जा रहा है, वो बीएसपी को ठीक से नहीं समझ पा रहा. ऐसे में पार्टी उनको सोच समझकर कर ही मौक़ा देगी ताकि भविष्य में इसका भयंकर नुक़सान ना हो.”

मायावती के इस बयान को देखें तो उन्होंने चंद्रशेखर के उभार पर कोई टिप्पणी नहीं की. वहीं उन्होंने अपनी जाति के कोर वोटर को धन्यवाद दिया और मुस्लिमों के प्रति नाराज़गी जाहिर की. मायावती और चंद्रशेखर दोनों ही जाटव समुदाय से आते हैं.

क्या बीएसपी अब कमजोर हो रही है?

क्या बीएसपी अब कमजोर हो रही है?

दलित चिंतक कंवल भारती कहते हैं, “अल्पसंख्यक, पिछड़े, अति पिछड़े, दलित मायावती के वोटर रहे हैं लेकिन बीएसपी अपनी ज़मीन और विश्वास दोनों खो चुकी है. मायावती अब बीजेपी की तरफ़ से खेल रही हैं और वो अपने उम्मीदवारों को खड़ा इसलिए करती हैं ताकि इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार हार सकें. वो दलित उत्पीड़न, सांप्रदायिक, धार्मिक उन्माद और आरक्षण के सवाल पर चुप रहती हैं.”

आँकड़ों में देखें तो बीएसपी का वोट बैंक बिखरता जा रहा है. साल 2019 के लोकसभा चुनावों में बीएसपी को 19.43 प्रतिशत वोट मिले थे और पार्टी ने 10 सीट पर जीत दर्ज की थी.

वहीं 2022 के विधानसभा चुनावों में पार्टी का वोट प्रतिशत घटकर 12.88 प्रतिशत हो गया था और पार्टी महज एक सीट पर जीत दर्ज कर पाई थी. इस बार के लोकसभा चुनाव में पार्टी का वोट प्रतिशत घटकर 9.39 प्रतिशत हो गया है और पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई.

इसी तरह मध्य प्रदेश में पार्टी के प्रदर्शन की बात करें तो यहाँ साल 2018 में पार्टी को 5.01 फ़ीसदी वोट मिले थे जो 2023 में घटकर 3.40 फ़ीसदी रह गया.

हालांकि 2022 में पंजाब विधानसभा चुनाव में पार्टी का वोट प्रतिशत सुधारा लेकिन ये बहुत मामूली था. साल 2017 के चुनाव में पार्टी को 1.5 फ़ीसदी वोट मिले थे जो साल 2022 में पंजाब विधानसभा में मामूली बढ़त के साथ 1.77 फ़ीसदी हो गया था.

नवल किशोर कहते हैं, “ बीएसपी का समय अब भी गया नहीं है. अब भी 9 फ़ीसदी उसका कोर वोटर है. लेकिन बीएसपी को दिल बड़ा करके ग़ैर जाटव लोगों को सम्मान देना होगा. मायावती 2007 में जब यूपी की सत्ता में आईं तो उनके साथ पिछड़ा, अति पिछड़ा, जाटव, ग़ैर जाटव सब थे.''

''लेकिन उनके क़रीबी रहे सतीश मिश्रा का जैसे-जैसे पार्टी के नीतिगत मसलों और ढांचे में प्रभाव बढ़ा तो एक एक करके पार्टी के जाटव, ग़ैर जाटव नेताओं ने किनारा कर लिया. इनमें बाबू सिंह कुशवाहा, दद्दू प्रसाद से लेकर ओम प्रकाश राजभर तक थे. इसलिए 2012 के बाद वो सत्ता में कभी वापस नहीं लौटीं.”

दलित वोटर्स का सहारा- आबादी क़रीब 25 फ़ीसदी!

दलित वोटर्स का सहारा- आबादी क़रीब 25 फ़ीसदी!

यूपी में अनुसूचित जाति की आबादी क़रीब 25 फ़ीसदी है. इनका मुख्यत: विभाजन जाटव और ग़ैर-जाटव समुदाय में किया जाता है. यूपी में जाटव कुल अनुसूचित जाति का तकरीबन 54 फ़ीसदी हैं वहीं ग़ैर जाटवों में पासी, धोबी, खटिक, धानुक आदि आते हैं जो 46 फ़ीसदी हैं.

यूपी विधानसभा में 86 सीट आरक्षित हैं, जिसमें 84 अनुसूचित जाति के लिए और दो अनुसूचित जनजाति के लिए. साफ तौर पर ये बहुत बड़ा संख्या बल है जो सरकार बनाने में अहम भूमिका अदा करता है.

इसी दलित वोट बैंक के सहारे मायावती प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं.

चंद्रशेखर ने भीम आर्मी बनाने के बाद बीएसपी को अपनी पार्टी बताया था. लेकिन बाद में साल 2020 में उन्होंने अपनी पार्टी बना ली. चंद्रशेखर ने साल 2022 के विधानसभा चुनाव में गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ के ख़िलाफ़ चुनाव भी लड़ा था, लेकिन उसमें उनका प्रदर्शन निराशाजनक रहा.

चंद्रशेखर विधानसभा चुनाव में तो कमाल नहीं दिखा पाए लेकिन उन्होनें सड़क पर अपनी लड़ाई को जारी रखी. इधर मायावती ने भी अपनी पार्टी में युवा नेतृत्व के तौर पर अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी बनाया था.

आकाश आनंद ने नगीना में चुनावी सभा करते हुए चंद्रशेखर आज़ाद पर निशाना साधा था.

लेकिन माना जाता है कि एक चुनावी सभा में आकाश आनंद के बीजेपी सरकार पर तीखे हमले से मायावती नाराज़ हो गईं. बाद में उन्होंने आकाश आनंद को राष्ट्रीय समन्वयक पद से हटा दिया.

बीएसपी समर्थक संतोष कुमार बीबीसी से कहते हैं, “ऐसा करके तो बहन जी ने साफ़ कर दिया कि वह बीजेपी के इशारों पर काम कर रही हैं. ऐसे में उनका वोट तो कम होगा ही. युवा को जगह देने से ही पार्टी आगे बढ़ती है और पार्टी के साथ फिर से उसके समर्थक जुड़ते.”

वहीं पत्रकार शीतल पी सिंह कहते हैं, “आकाश आनंद को हटाना भ्रूण हत्या की तरह था. अब चंद्रशेखर संसद जा रहे हैं. उत्तर भारत में दलित युवा उनके साथ संगठित हो चुके हैं और अब जब उनको मौक़ा मिला है तो उनसे अपने संगठन विस्तार की अपेक्षा है.”

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