Happy Birthday Modi Ji : मोदी का जन्म दिन कूनो में लाये जा रहे चीते, गरीब बदहाल आदिवासियों के रोजगार पर एक और संकट..

In January 2022, the Ministry of Environment, Forest and Weather Change issued an express license to all the tribals, in which Kuno was described as a "man-free zone".

मध्यप्रदेश के शिवपुर ज़िले के बागचा गांव में अफ़्रीकी चीतों को बसाने के लिए सहरिया आदिवासियों को विस्थापित किया जाएगा. यह फ़ैसला पर्यावरण संबंधी ख़तरों और आदिवासियों के रोज़गार पर उत्पन्न संकटों से भरा हुआ है,

“मैं तेज़ दौड़ के आऊंगा और कूनो में बस जाऊंगा.”
यह चिंटू नाम के एक चीते की कही हुई बात है जो हर उस आदमी के लिए है जो उसकी बात को पढ़ने या सुनने का इच्छुक है क्योंकि यह एक पोस्टर पर लिखा है.

यह पोस्टर मध्यप्रदेश के वन विभाग द्वारा छह महीने पहले लगाया गया था, जो विभाग के अधिकारियों के कहने पर आधिकारिक आदेश के रूप में लगाया गया है. यह आदेश कूनो राष्ट्रीय उद्यान के आसपास बसने वाले उन सभी लोगों के लिए है जिन्हें पोस्टर पर दिखता दोस्ताना नंमिबिया का ‘चिंटू’ चीता यह बताना चाहता है कि इस उद्यान को वह अपना घर बनाना चाहता है.
जिस घर की बात चिंटू कह रहा है उसे 50 असली अफ़्रीकी चीते आपस में साझा करेंगे. अलबत्ता इस घर में यहां बागचा गांव में रहने वाले उन 556 मनुष्यों की कोई साझेदारी नहीं होगी, क्योंकि उन्हें विस्थापित अथवा पुनर्वासित करते हुए कहीं और बसाया जाएगा. इस विस्थापन से इन जंगलों से लगभग अभिन्न रूप से जुड़े लोगों और मुख्यतः सहरिया आदिवासियों की ज़िंदगियों और रोज़गारों पर घातक संकट उत्पन्न होने की आशंका है.
आपको बता दें कि केवल ऐसे पर्यटक जो भारी-भरकम ख़र्च कर बाहर से मंगाए गए इन चीतों को देखने के लिए सफ़ारी पर चीता देखने जाएंगे, ही इस जंगल को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा देने की हैसियत रखते हैं. लेकिन इस परियोजना से स्थानीय लोगों के जीवन और हितों का शामिल नहीं किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. उनमें से अधिकतर लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं.
पोस्टर और कार्टूनों में इस ‘प्यारे’ चित्तीदार बड़ी बिल्ली को देखकर बहुत से स्थानीय लोग दुविधाओं में घिरे हुए हैं. इस अभयारण्य से कोई 20 किलोमीटर दूर पैरा जाटव नाम की छोटी बस्ती में रहने वाले आठ साल के सत्यन जाटव ने अपने पिता से पूछा, ”क्या यह कोई बकरी है?” उसके छोटे भाई अनुरोध ने बीच में अपनी राय देते हुए कहा कि यह ज़रूर एक तरह का कुत्ता होगा.
चिंटू की घोषणा के बाद पूरे क्षेत्र में पोस्टरों की शक्ल में दो कॉमिक्स लगाए गए हैं जिसमें, दो बच्चों मिंटू और मीनू को, चीतों कर बारे में जानकारी साझा करते हुए दिखाया गया है. वे दावा करते दिखते हैं कि ये जानवर कभी भी आदमी पर हमला नहीं करते हैं और तेंदुओं की अपेक्षा कम ख़तरनाक हैं. बल्कि, मिंटू ने तो यहां तक सोच रखा है कि वह उन चीतों के साथ दौड़ लगाएगा.
आशा है कि अगर ये जाटव लड़के कभी चीतों से टकरा भी जाएं, तो उन्हें पालतू बनाने के बारे में कभी नहीं सोचेंगे.
असल कहानी अब शुरू होती है, और इसका हर शब्द पीड़ा में डूबा हुआ है.
एसिनोनिक्स जुबेटस (अफ़्रीकी चीता) एक ऐसा जानवर है जो बेहद ख़तरनाक साबित हो सकता है, और वह बड़ा स्तनपायी होने के साथ-साथ पृथ्वी का सबसे तेज़ भागने वाला जानवर है. यह एक विलुप्तप्राय प्रजाति है और भारत में नहीं पायी जाती. बहरहाल भारत आने के बाद यह अप नी रिहाइश के आसपास बसे सैकड़ों परिवारों को विस्थापन के लिए विवश कर देगा.
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बल्लू आदिवासी (40 वर्ष) अपने गांव बागचा के किनारे से शुरू होने वाले कूनो जंगल की तरफ़ इशारा करते हुए बताते हैं, “इस वर्ष 6 मार्च को वहां वन विभाग की चौकी पर एक बैठक बुलाई गई थी. हमसे कहा गया कि यह इलाक़ा राष्ट्रीय उद्यान बन गया है और हमें यहां से जाना होगा.”
मध्यप्रदेश के शिवपुर ज़िले के पश्चिमी सीमांत पर बसा बागचा गांव मुख्यतः सहरिया आदिवासियों का इलाक़ा है. सहरिया आदिवासी मध्यप्रदेश में विशिष्टतः असुरक्षित जनजातीय समूह (PVTG) में आते हैं जिनकी साक्षरता दर सिर्फ़ 42 प्रतिशत है. 2011 की जनगणना के अनुसार विजयपुर ब्लॉक के इस गांव की कुल आबादी केवल 556 है. ये लोग मिट्टी और ईंट के बने घरों में रहते हैं जिनकी छतें पत्थर की पट्टियों से बनी होती हैं. यह पूरा क्षेत्र राष्ट्रीय उद्यान से घिरा हुआ है. यह भूक्षेत्र कूनो पालपुर के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि कूनो नदी यहीं से बहती हुई निकलती है.

In January 2022, the Ministry of Environment, Forest and Weather Change issued an express license to all the tribals, in which Kuno was described as a "man-free zone".

कल्लो आदिवासी की उम्र साठ से ऊपर की हो चुकी है. उन्होंने अपनी पूरी की पूरी शादीशुदा ज़िंदगी बागचा में ही गुजारी हैं. “हमारी ज़मीनें यहीं हैं, हमारे जंगल यहीं हैं, हमारे घर यहीं हैं, जो कुछ भी यहां हैं, वे हमारे हैं. और, अब हमें यहां से चले जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है.” एक खेतिहर, जंगल की उपज को इकट्ठा कर अपनी गुज़र-बसर करने वाली, और अपने साथ ही रहने वाले सात बच्चों और अनेक पोते-पोतियों की मां के तौर पर वह सवाल करती हैं, “चीतों के बसने से हमें क्या हासिल होगा?”

In January 2022, the Ministry of Environment, Forest and Weather Change issued an express license to all the tribals, in which Kuno was described as a "man-free zone".

बागचा पहुंचने के लिए शिवपुर से सिरोनी शहर की तरफ़ जाने वाले हाईवे को छोड़ कर एक धूल-धक्कड़ वाली सड़क में दाख़िल होना होगा. इस पूरे इलाक़े में करधई, खैर, और सलाई के हवादार पर्णपाती जंगल मिलते हैं. कोई बारह किलोमीटर आगे बढ़ने के बाद टीले पर बसा और बड़ी तादाद  इधर-उधर चरते मवेशियों से भरा यह गांव दिखाई देता है. यहां से सबसे नज़दीकी जन-स्वास्थ्य केंद्र गांव से लगभग 20 किलोमीटर दूर है जहां 108 नंबर पर डायल करने के बाद पहुंचा जा सकता है, बशर्ते बेसिक फ़ोन या नेटवर्क सेवाएं काम करें. बागचा में एक प्राथमिक विद्यालय है, लेकिन पांचवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई करने के लिए बच्चों को 20 किलोमीटर दूर ओछा के मध्य विद्यालय जाना होता है, जहां से उनकी वापसी केवल सप्ताहांत को ही हो पाना संभव है.
सहरिया अपनी छोटी-छोटी ज़मीनों पर वर्षा पर निर्भर खेती करते हैं और ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कूनो में पायी जाने वाली वनस्पतियों और कंद-मूलों अर्थात ‘नॉन-टिंबर फारेस्ट प्रोड्यूस (एनटीएफ़पी) की बिक्री पर आश्रित होते हैं. उनके विस्थापन के परिणामस्वरूप जंगली वनस्पतियां और औषधियां भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएंगी. मसलन चीर के पेड़ से निकाली गई गोंद उनकी आय का एक बड़ा स्रोत हैं. साथ ही वे विभिन्न प्रकार के फल, कंद, जड़ी-बूटियां और केंदु के पत्ते भी बेचते हैं. अगर मौसम ने साथ दिया तो प्रत्येक सहरिया परिवार अपने दस सदस्यों के औसत से इन सभी स्रोतों से कम से कम 2-3 लाख रुपए प्रतिवर्ष की कमाई की अपेक्षा रखता है. इस आमदनी में वे बीपीएल (ग़रीबी रेखा के नीचे) कार्ड पर मिलने वाले राशन को भी शामिल रखते हैं.  

In January 2022, the Ministry of Environment, Forest and Weather Change issued an express license to all the tribals, in which Kuno was described as a "man-free zone".

राशन में मिले अनाज से उन्हें अगर कोई ठोस सुरक्षा नहीं भी मिलती है तो भी अपनी खाद्य-व्यवस्था में उन्हें एक बड़ी स्थिरता ज़रूर महसूस होती है.
जंगल से निष्कासित होकर वे इन सभी चीजों को गंवा देंगे. “जंगल से हमें जो सुविधाएँ मिलती हैं, वे ख़त्म हो जाएँगी. चीर के पेड़ों से मिलने वाली गोंद पर हमारा कोई अधिकार नहीं रह जाएगा, जिन्हें बेच कर हम अपने लिए नमक और तेल खरीदते हैं. यह सब समाप्त हो जाएगा. हमें आमदनी के लिए सिर्फ़ अपनी मेहनत पर निर्भर रहना होगा और हमारी स्थिति एक मजदूर से अधिक कुछ नहीं रह जाएगी,” बागचा के एक सहरिया हरेथ आदिवासी निराशा के साथ बताते हैं.
विस्थापन और संरक्षणविद प्रो. अस्मिता काबरा के अनुसार, विस्थापन के मानवीय और आर्थिक पक्ष बेहद महत्वपूर्ण हैं. साल 2004 में बागचा में उनके द्वारा किए गए शोध के अनुसार उस समय गांव को जंगल के बिक्री योग्य उत्पादों से अच्छी-ख़ासी आमदनी होती थी. “इस बृहद जंगल से जलावन की लकड़ी, तख्ते और सिल्लियां, जड़ी-बूटी, और औषधियां, फल, महुआ और बहुत सी अन्य सामग्रियां प्रचुर मात्रा में मिलती थीं,” वह बताती हैं. आधिकारिक वेबसाईट के मुताबिक कूनो राष्ट्रीय उद्यान 748 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है और वृहद्तर कूनो वन्यजीवन प्रमंडल के अंतर्गत आता है. कुल मिला कर यह 1,235 वर्ग किलोमीटर का भूक्षेत्र है.
इस वनसंपदा के अतिरिक्त कृषियोग्य भूमि भी हैं जिन पर पीढ़ियों से निरंतर उपज होती रही है. विस्थापित किसानों के लिए इन सबकी भरपाई असंभव होगी. हरेथ आदिवासी कहते हैं, “बारिश के दिनों में हम यहां बाजरा, जोवार, मक्का, उड़द, तिल, मूंग और रमास (लोबिया) के साथ-साथ भिंडी, कद्दू, तोरी जैसी सब्ज़ियां उगाते हैं.”
कल्लो, जिनका परिवार 15 बीघा (5 एकड़ से थोड़ा कम) ज़मीन पर खेती करता है, उनके समर्थन में कहती हैं, “हमारी ज़मीनें बहुत उपजाऊ हैं. हम इस जगह से जाना नहीं चाहते हैं, लेकिन सरकार हमें ज़बरदस्ती हटा सकती है.”
प्रो. काबरा के मतानुसार, सहरिया आदिवासियों को खदेड़ कर जंगल को चीतों के रहने के लिए निरापद जगह बनाने की इस योजना को किसी ठोस पारिस्थितिकी शोध के बिना ही क्रियान्वित करने का प्रयास किया जा रहा है. वह कहती हैं, “आदिवासियों को जबरन जंगल से बाहर निकाल देना ऐसे भी बहुत कठिन काम नहीं है क्योंकि वन विभाग ऐतिहासिक रूप से उनके साथ सख्ती से निबटता रहा है. विभाग आदिवासियों के जीवन के विविध पहलुओं को नियंत्रित करता रहा है.”
राम चरण आदिवासी को किसी पर्याप्त कारण के बिना भी जेल में डाल देने की हालिया घटना इस बात की पुष्टि करती है. पचास साल पहले अपने जन्म के बाद से ही वह कूनो के जंगलों में बेख़ौफ़ आते-जाते रहे हैं. पहली बार वे अपनी माँ के साथ जलावन की लकड़ी लाने के लिए जंगल के भीतर गये थे, लेकिन पिछले 5-6 सालों से वन विभाग ने राम चरण के समुदाय द्वारा वन-संसाधनों के उपयोग के इस अधिकार को प्रतिबंधित कर दिया गया है, और इसके कारण उनकी आमदनी अब सिर्फ़ आधी ही रह गई है. वह बताते हैं, “पिछले पांच सालों से वनरक्षकों ने हमारे ऊपर अवैध शिकार और चोरी के झूठे मामले चलाए, और यहां तक कि हमें (राम चरण और उनके बेटे को) शिवपुरी की जेल में भी ठूंस दिया. हमें अपनी जमानत और जुर्माना भरने के लिए किसी तरह से 10000-15,000 रुपए जुटाने पड़े.”
जंगल से खदेड़े जाने के आसन्न ख़तरों और वन विभाग के साथ रोज़-रोज़ के इस लुकाछिपी के खेल के बावजूद बागचा के ये आदिवासी हार मानने को तैयार नहीं हैं. स्थानीय लोगों के एक समूह में घिरे हुए हरेथ दृढ़ता के साथ कहते हैं, “हमें अभी विस्थापित नहीं किया जा सका है, ग्राम सभा की बैठकों में हमने अपनी मांग पूरी स्पष्टता के साथ रखी है.” सत्तर वर्षीय यह आदिवासी नवगठित ग्राम सभा का सदस्य है. यह ग्राम सभा, उनके कथनानुसार, वन विभाग की पहल पर ही मार्च 6, 2022 को गठित की गई थी, ताकि विस्थापन की योजना को गतिशीलता दी जा सके. वन अधिकार अधिनियम, 2006 [धारा 4 (2)(ई)] के अंतर्गत केवल गांव की ग्राम सभा की लिखित सहमति के बाद ही ख़ाली कराने की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है.
दूसरे सदस्यों द्वारा गांव के प्रधान को संदर्भित करने के बाद, बल्लू आदिवासी हमें बताते हैं, “हमने अधिकारियों को यह सूचित किया कि आपने मुआवजे के लिए केवल 178 योग्य नामों की सूची बनाई है, जबकि गांव में हमारी कुल संख्या 265 है. वे हमारी बताई हुई संख्या से सहमत नहीं थे, तो हमने कहा कि हम तब तक नहीं जाएंगे, जब तक आप हम सबको मुआवजा देने को राज़ी नहीं होंगे. उन्होंने हमें वचन दिया है कि वे 30 दिनों के भीतर हमारी मांग को पूरी करेंगे.”
एक महीने बाद 7 अप्रैल, 2022 को बैठक बुलाई गई. एक शाम पहले ही पूरे गांव को कहा गया था कि अगले दिन की बैठक में सभी लोग शामिल हों. जब 11 बजे पूर्वाह्न बैठक शुरू हुई, तो सबसे एक काग़ज़ पर दस्तखत करने को कहा गया, जिस पर लिखा गया था उनके साथ कोई ज़ोर-जबरदस्ती नहीं की जा रही है और वे सभी अपनी मर्ज़ी से अपने गांव से जा रहे हैं. काग़ज़ पर सिर्फ़ उन 178 लोगों के नाम दर्ज़ थे जिनको पुनर्वास के लिए मुआवजा दिया जा रहा था. ग्राम सभा ने काग़ज़ पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया.
सहरिया आदिवासियों के इस क़दम को पड़ोस के 28 गांवों के साथ अधिकारियों द्वारा  किए गए झूठे वायदों की याद से ताक़त मिली थी, जब कूनो के जंगलों में ही 1999 में तक़रीबन 1,650 परिवारों को गुजरात से आए शेरों के लिए तुरत-फुरत में अपना घर छोड़ देने के लिए मजबूर होना पड़ा था. सशंकित बल्लू बताते हैं, “आज के दिन तक सरकार ने उन लोगों के साथ किया गया वायदा नहीं निभाया है. वे आज भी अपने बकाए के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा रहे हैं. हम ऐसी स्थिति में नहीं फंसना चाहते हैं.”
विडंबना यह है कि जंगल में कभी शेर भी नहीं देखे गए, और आज इस बात को बाईस साल हो गए.

In January 2022, the Ministry of Environment, Forest and Weather Change issued an express license to all the tribals, in which Kuno was described as a "man-free zone".

अंधाधुंध शिकार के कारण भारत में विलुप्त हो चुके एशियाई चीता (एकिनोनिक्स जुबेटस वेनाटिकस) - बिल्ली प्रजाति के ये पीले और चित्तीदार जीव – अब इतिहास किताबों और शिकारियों की बहादुरी के किस्सों में ही ज़िंदा बच गए हैं. देश के अंतिम तीन एशियाई चीतों को एक छोटी रियासत के तात्कालिक महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने 1947 में मार गिराया था.
देव की इस हरक़त ने भारत की स्थिति को ख़ासा नुकसान पहुँचाया क्योंकि पृथ्वी पर भारत एक ऐसा स्थान शेष बचा रह गया था जहां बिल्ली प्रजाति के सभी छह बड़े जानवर – शेर, बाघ, चीता, सामान्य तेंदुआ, बर्फीले क्षेत्र में पाए जाने वाला तेंदुआ और क्लाउडेड तेंदुआ पाए जाते थे. इन तेजरफ्तार और ताक़तवर जानवरों – ‘जंगल के राजाओं’ की तस्वीरें आज भी हमारे अनेक सरकारी प्रतीकों के रूप में सुस्थापित हैं. एशियाई शेरों से अंकित अशोक चक्र का प्रयोग हमारे सरकारी मुहरों में और करेंसी नोटों पर होता है. इन पशुओं की विलुप्ति ने निश्चित ही हमारे राष्ट्रीय गौरव को नुकसान पहुँचाया है. इसीलिए चीते की विलुप्ति का विषय सरकार के संरक्षण की प्राथमिकताओं में महत्वपूर्ण स्थान रखता है.
पर्यावरण, वन और मौसम परिवर्तन मंत्रालय ने इस वर्ष जनवरी से ‘भारत में चीता के सम्मिलीकरण के लिए कार्य योजना’ नाम से एक कार्यक्रम की शुरुआत की है. इस कार्यक्रम में यह भी बताने की चेष्टा दिखती है कि ‘चीता’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है – वह जिस पर चित्तियाँ अंकित हों. इस शब्द का उल्लेख मध्य भारत की नवपाषाण युगीन गुफाओं में बने चित्रों में भी मिलता है. साल 1970 के दशक में भारत सरकार ने ईरान के शाह से कुछ एशियाई चीतों को भारत में लाने के उद्देश्य से बातचीत भी की ताकि भारत में चीतों को आबादी को एक एक स्थिरता दी जा सके.
2009 में मामले ने दोबारा तूल पकड़ा जब पर्यावरण, वन और मौसम परिवर्तन मंत्रालय ने भारतीय वन्यजीवन संस्थान और भारतीय वन्यजीवन ट्रस्ट से भारत में चीतों के बसाने की संभावनाओं का आकलन करने अनुरोध किया. आज एशियाई चीते केवल ईरान में पाए जाते हैं, लेकिन उनकी तादाद इतनी कम है कि उनका आयात असंभव है. यही हालत नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका में पाए जाने वाले अफ्रीकी चीतों की है. इन चीतों की उत्पत्ति का इतिहास कोई 70,000 साल पुराना है.
मध्य भारत के दस अभ्यारण्यों का सर्वेक्षण करने और 345 वर्ग किलोमीटर के कूनो अभ्यारण्य को 2018 में शेरों को बसाने के उद्देश्य से विकसित कर 784 वर्ग किलोमीटर कूनो पालपुर राष्ट्रीय उद्यान में परिवर्तित करने के बाद इसे ही अफ्रीकी चीतों के लिए सबसे उपयुक्त माना गया. यहां बस एक ही दिक्कत थी : बागचा गांव जो उद्यान के ठीक बीचोंबीच आ रहा था, उसे वहाँ से हटाने की आवश्यकता थी. जनवरी 2022 में पर्यावरण, वन और मौसम परिवर्तन मंत्रालय ने सभी आदिवासियों को सकते डालते हुए एक प्रेस अनुज्ञप्ति जारी की जिसमें कूनो को “मनुष्य-रहित क्षेत्र” बताया गया था.

Narendra modi :Kuno abhyaran birthday celebraye

कार्ययोजना के अनुसार कूनो में चीतों के बसने से अतीत की तरह शेरों, बाघों, तेंदुओं और चीतों के एक साथ मिल कर रहने की प्रवृति दोबारा विकसित होगी.” दुर्भाग्यवश इस वक्तव्य में दो बड़े दोषों को सहजता के साथ रेखांकित किया जा सकता है. योजनानुरूप बसाए जाने वाले चीते अफ्रीकी हैं, भारत में कभी पाए जाने वाले एशियाई चीते नहीं हैं. और, फिलहाल कूनो में एक भी शेर नहीं बसाए जा सके हैं क्योंकि 2013 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद गुजरात सरकार ने अभी उन्हें अभी तक भेजा नहीं है.
रघुनाथ आदिवासी बताते हैं, “बाईस साल बीत गए हैं और शेर अभी तक नहीं आए हैं, और न वे भविष्य में कभी आएंगे.” बागचा में लंबे समय से रहने वाले रघुनाथ को अपने घर से विस्थापित कर दिए जाने की चिंता है, क्योंकि कूनो से लगे गांवों की अनदेखी अतीत में भी होती रही है. पहले भी इन गांवों के लोगों की मांगों और हितों को ख़ारिज किया जाता रहा है.
“जंगल के राजाओं” के स्थानांतरण की इस महत्वाकांक्षी योजना को वन्यजीव संरक्षणवादियों की चिंताओं से भी सह मिला है, क्योंकि कुछ अंतिम बचे हुए एशियाई शेर (पंथेरा लियो लियो ) अब पूरी तरह से एक ही स्थल, यानी गुजरात के सौराष्ट्र प्रायद्वीप तक सीमित हो कर रह गए हैं. कैनाइन डिस्टेंपर वायरस का संक्रमण, जंगल में फैली आग या दूसरे ख़तरे उनके अस्तित्व को पूरी तरह मिटा सकते हैं, इसलिए उनमें से कुछेक शेरों को कहीं दूसरी जगह स्थानांतरित करना बहुत ज़रूरी है.
केवल आदिवासियों ने ही नहीं बल्कि जंगल में रहने वाले दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों ने भी वन विभाग को आश्वस्त किया है कि वे जानवरों के साथ सहअस्तित्व के सिद्धांत के अनुसार ज़िंदगी गुज़ार सकते हैं. पैरा गांव के पुराने निवासी 70 वर्षीय रघुलाल जाटव कहते हैं, “हमने सोचा कि शेरों के लिए हमें जंगल छोड़ कर जाने की क्या ज़रूरत है? हम जानवरों के स्वभाव से परिचित हैं. हमें उनसे डर नहीं लगता है. हम इसी जंगल में जन्मे और बड़े हुए हैं. हम भी शेर हैं!” उनका गांव कभी राष्ट्रीय उद्यान के अंदर था, और वहां उन्होंने अपने जीवन के 50 साल बिताए थे. वह बताते हैं कि उनके साथ ऐसा कुछ भी, कभी नहीं हुआ जिसे अप्रिय कहा जा सके.
भारतीय वन्यजीवन संस्थान के डीन और संरक्षणवादी प्राणीविज्ञानी डॉ. यादवेन्द्र झाला बताते हैं कि अतीत में और हाल-फ़िलहाल भी ऐसी घटना का हवाला नहीं मिलता, जब किसी चीते ने आदमी पर हमला कर दिया हो. “मनुष्य के साथ टकराव एक बड़ा मुद्दा नहीं है. चीतों की प्रस्तावित रिहाइश बड़ी संख्या में मांसभक्षियों के बसने की उपयुक्त जगह इसलिए भी है कि लोगों दावा पाले गए मवेशी उनके लिए सुलभ और उचित आहार होते हैं. जंगल में मवेशीपालन जानवरों और मनुष्यों के बीच के संभावित टकराव को न्यूतम करने में मददगार सिद्ध होता है.” शेष मारे गए मवेशियों की क्षतिपूर्ति के लिए संभव होने पर अलग बजट का प्रावधान किया जा सकता है.

बैठक 7 अप्रैल, 2022 को हुई थी. इससे पिछली शाम को पूरे गांव को अगले दिन उपस्थित रहने के लिए कहा गया था. जब बैठक सुबह 11 बजे शुरू हुई, तो अधिकारियों ने उन्हें एक काग़ज़ पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें विस्थापन के लिए मजबूर नहीं किया जा रहा है और वे यहां से जाने के लिए सहमत हो गए हैं.

बहरहाल स्थानीय लोगों और वैज्ञानिकों – दोनों की अनदेखी करते हुए केंद्र सरकार ने जनवरी 2022 में एक प्रेसविज्ञप्ति के माध्यम से यह घोषणा की : “प्रोजेक्ट चीता का उद्देश्य स्वतंत्र भारत के लुप्त हो चुके एकमात्र बड़े स्तनपायी - चीता को दोबारा वापस लाना हैं.” इस पहल से “इको-पर्यटन और अन्य संबंधित गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलेगा.”
अफ्रीकी चीतों के इस साल 15 अगस्त तक भारत पहुंच जाने की आशा है. संयोग की बात है कि भारत की आज़ादी का दिन भी यही है.
बागचा गांव इस पूरे घटनाक्रम का पहला शिकार बनेगा.
इस पूरी विस्थापन-योजना पर नज़र रखने वाले ज़िला वन पदाधिकारी प्रकाश वर्मा कहते हैं कि 38.7 करोड़ की चीता स्थानान्तरण योजना में 26.5 करोड़ रुपए आदिवासियों के विस्थापन और पुनर्वास पर ख़र्च किए जाएंगे. वह बतलाते हैं, “तक़रीबन 6 करोड़ रुपए चीतों के लिए अहाता बनाने, उनके पीने के पानी की व्यवस्था करने, उनके आने-जाने के लिए रास्ते बनाने और चीतों की देखभाल करने के लिए वन विभाग के अधिकारियों को प्रशिक्षण देने में ख़र्च होंगे.”
25 वर्ग किलोमीटर के इलाक़े को चारदीवारी से घेर दिया जाएगा और हरेक दो किलोमीटर की दूरी पर वन प्रहरियों के लिए एक ऊंचा टावर बना होगा. पहली खेप में जो 20 चीते अफ्रीका से मंगाए जाएंगे उनमें हरेक के लिए चारदीवारी से घिरा 5 वर्ग किलोमीटर का अहाता होगा. चीतों की सुख-सुविधाओं और स्वास्थ्य को पहली प्राथमिकता दी जाएगी. यह ज़रूरी भी है: अफीका के वन्यजीवन पर केंद्रित आ ईएनसीएन की एक रिपोर्ट में अफ़्रीकी चीते (एकिनोनिक्स जुबेटस) का उल्लेख ऐसे जीव के रूप में किया गया है जो विलुप्तप्राय है. कई दूसरी रिपोर्टों में भी उसकी संख्या में भारी गिरावट पर चिंता प्रकट की गई है.
संक्षेप में, एक ग़ैर स्थानीय और विलुप्तप्राय होती प्रजाति को सर्वथा एक नई दुनिया और परिवेश में लाने - और स्थानीय और वंचित जनजातीय समूहों को उनके लिए स्थान ख़ाली करने के लिए विवश करने की इस परियोजना में 40 करोड़ रुपए का व्यय अनुमानित है. यह निर्णय ‘मानव और पशुओं के बीच के टकराव’ में निश्चय एक नया आयाम जोड़ेगा.

Narendra modi: kuno national park birthday celebrate

प्रो. काबरा संकेत करती हैं, “संरक्षण की यह बहिष्करण-नीति – कि मनुष्य और वन्यजीव एक साथ नहीं रह सकते हैं – दिखती नहीं है, सिर्फ़ अनुभूत की जा सकती है.” उन्होंने इस वर्ष जनवरी में प्रकाशित ‘संरक्षण के लिए निर्वासन’ विषय पर एक पेपर के लेखन में सहयोग किया है. वह सवाल करती हैं कि वन्य अधिकार अधिनियम 2006 के प्रभावी होने और जंगल में रहने वालों के अधिकारों की रक्षा के बावजूद पूरे देश में 14,500 जितनी बड़ी संख्या में परिवारों को टाइगर रिजर्व से विस्थापित किया जा चुका है. उनका तर्क है कि इस तीव्रता के साथ विस्थापन की वजह यह थी कि कानून और सत्ता हमेशा ही अधिकारियों के पक्ष में रहे और उन्होंने हर कारगर और ‘वैध’ हथकंडों का प्रयोग किया ताकि ग्रामवासी ‘स्वेच्छया’ विस्थापन के लिए सहमत हो जाएं.
बागचा में रहने वाले लोग बताते हैं कि उन्हें अपने गांव से जाने के एवज़ में 15 लाख रुपए देने का प्रस्ताव दिया गया है. वे पूरी राशि को या तो नक़दी के रूप में ले सकते हैं या फिर घर बनाने के लिए ज़मीन और पैसे दोनों ले सकते हैं. रघुनाथ बताते हैं, “एक विकल्प यह है कि 3.7 लाख रुपए घर-निर्माण के लिए और बाक़ी पैसों के मूल्य के बराबर की ज़मीन जिसपर वे खेती कर सकें. लेकिन बिजली की आपूर्ति, पक्की सड़क, हैंड पंप, बोरवेल आदि के नाम पर नक़दी में कटौती का भी प्रावधान है.”
उनके नए घरों के लिए बामुरा को स्थल के रूप में चुना गया है. यह बागचा से कोई 46 किलोमीटर दूर कराहल तहसील के गोरास नाम की जगह के निकट है. हताशा और खीझ से भरी कल्लो कहती हैं, “हमें जो नई ज़मीन दिखाई गई है वह हमारे मौजूदा खेतों की तरह बहुत उपजाऊ नहीं है. कुछ खेत तो पूरी तरह से बंजर हैं और उनमें नहीं के बराबर पैदावार होती है. उन्हें उर्वर बनाने में सालों का समय लगेगा, जबकि शुरुआती तीन सालों तक हमें किसी तरह की कोई मदद नहीं मिलेगी.”
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प्रोजेक्ट चीता के अनुसार अफ्रीकी चीतों के भारत लाने की वजहों में एक ‘ पारिस्थितिकी को बचाना ’ भी बताया गया है. किंतु डॉ. रवि चेल्लम जैसे वन्यजीवन विशेषज्ञों की दृष्टि में यह बेतुकी और हताशापूर्ण दलील है. मेटास्ट्रिंग फाउंडेशन के CEO और वन्यजीवन प्राणीशास्त्री डॉ. चेल्लम कहते हैं, “चीतों को भारत की घासभूमि संरक्षण के नाम पर लाया जा रहा है. यह बेतुकी बात है क्योंकि भारत की घासभूमि में पहले से बनबिलाव या स्याहगोश (caracal), काले हिरन या कृष्णमृग (black buck) और गोडावण या सोन चिरैया (great Indian bustard) जैसे दुर्लभ प्राणी हैं जो संकटग्रस्त हैं. ऐसे में अफ्रीका से किसी अन्य जानवर को लाने का क्या औचित्य है?”
बल्कि, उनके कथनानुसार, सरकार का यह उद्देश्य कि आगामी 15 वर्षों में चीतों की संख्या बढ़कर 36 हो जाएगी, बहुत व्यवहारिक नहीं प्रतीत होता, और शायद ही पूरा हो पाए. “पूरी परियोजना अंततः एक महिमामंडन और खर्चीले सफारी पार्क में परिवर्तित होकर रह जाएगी,” चेल्लम जो भारत में जैवविविधता संबंधी शोध और संरक्षण को बढ़ावा देने वाले नेटवर्क बायोडाईवर्सिटी कालेबोरेटिव के सदस्य भी हैं, आगे जोड़ते हैं.

सहरिया आदिवासियों के इस क़दम को पड़ोस के 28 गांवों के साथ अधिकारियों द्वारा किए गए झूठे वायदों की याद से ताक़त मिली थी, जब कूनो के जंगलों में ही 1999 में तक़रीबन 1,650 परिवारों को गुजरात से आए शेरों के लिए तुरत-फुरत में अपना घर छोड़ देने के लिए मजबूर होना पड़ा था##
मंगू आदिवासी को कूनो में अपने घर से विस्थापित हुए 22 साल हो चुके हैं. जिन शेरों के लिए वे निर्वासित किए गए वे आज तक नहीं आए. आज वे मुआवज़े में मिली अनुपजाऊ भूमि से किसी तरह अपनी गुज़र-बसर चलाने के लिए जूझ रहे हैं. मंगू चेल्लम से सहमत हैं : “चीता सिर्फ़ शोभा बढ़ाने के लिए आ रहे हैं - देश और दुनिया को सिर्फ़ यह बताने के लिए ऐसा कोई बड़ा तमाशा कूनो में हुआ है. जब उन चीतों को जंगल में लाकर छोड़ा जाएगा, उनमें से कुछ तो यहां पहले से ही रहने वाले जानवरों द्वारा मार डाले जायेंगे, कुछ चारदीवारी में दौड़ने वाले करंट लगने से मारे जाएंगे. हम सिर्फ़ तमाशा देखेंगे.”
एक अतिरिक्त खतरा इन विदेशी जानवरों के साथ आए पैथोजन का भी है जिसकी अनदेखी के गंभीर नतीजे हो सकते हैं. “परियोजना में ज्ञात पैथोजेन से होने वाले संक्रमणों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है. उसी तरह अफ़्रीकी चीते भी स्ठानीय वन्यजीवों से फैलने वाले संक्रमण का शिकार हो सकते हैं,” ये विचार डॉ. कार्तिकेयन वासुदेवन के हैं.
संरक्षणवादी प्राणीशास्त्री और हैदराबाद के ‘सेंटर फ़ॉर सेल्युलर एंड मोलेक्युलर बायोलॉजी’ स्थित ‘लेबोरेटरी फॉर कंजरवेशन ऑफ इन्डेजर्ड स्पेसीज’ के मुख्य वैज्ञानिक डॉ. कार्तिकेयन “स्थानीय वन्यजीवन को प्रियोन और अन्य दूसरी बिमारियों के संभावित संक्रमण, जानवरों के दीर्घकालिक संख्या-संतुलन, और पर्यावरण में उपस्थित पैथोजेन के प्रति आगाह करते हैं. चीतों को सबसे अधिक ख़तरा इन्हीं बातों से है.”
यह अफ़वाह भी ज़ोर-शोर पर है कि चीतों का आगमन – जो कि पिछले वर्ष ही होना था – को किसी विशेष तकनीक व्यवधान के कारण स्थगित कर दिया गया है. भारत का वन्यजीवन सुरक्षा अधिनियम 1972 अपनी धारा 49बी स्पष्टतः कहता है कि हाथी-दांत का व्यापार, यहां तक कि आयात तक क़ानूनी रूप से पूरी तरह निषिद्ध है. अपुष्ट स्रोतों के अनुसार, नामीबिया भारत को कोई भी चीता तब तक उपहार में नहीं देगा जब तक भारत ‘कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इन्डेंजर्ड स्पेसीज ऑफ वाइल्ड फौना एंड फ्लोरा’ (सीआईटीईएस) के अधीन सूचीबद्ध हाथी-दांत के व्यापार से अपना प्रतिबंध नहीं हटाएगा. इस सूची से मुक्त होने के बाद हाथी-दांत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार प्रतिबंध-मुक्त हो जाएगा. बहरहाल के लिए इस तथ्य कोई आधिकारिक कोई पुष्टि ही हुई है, और न इसे ख़ारिज ही किया गया है. बागचा का भविष्य ऐसे में अभी भी अधर में झूल रहा है. सुबह-सुबह जंगल में गोंद इकठ्ठा करने के उद्देश्य से निकले हरेथ आदिवासी चलते हुए सहसा रुक जाते है और कहते हैं, “हम सरकार से बड़े तो हैं नहीं. थककर हमें वही करना होगा जो सरकार चाहेगी. हम यहां से जाना नहीं चाहते हैं, लेकिन सरकार हमें जबरन बेदख़ल कर सकती है.”

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News source- people's archieve rural of india(pari)

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